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________________ स्वांत: सुखाय नहीं। परमात्मा को तुमने कहीं उदास देखा? जहां देखो, वहीं किलकारी है। जहां देखो वहीं उल्लास है। जहां देखो वहीं झरने की तरह फूटा पड़ रहा है। जरा आख खोल कर चारों तरफ देखो-चांद-तारों में, सूरज में, वृक्षों में, पहाड़ों में, पर्वतो में, खाई-खंदकों में सब तरफ हंसी है, खिलखिलाहट है, मधुर मुस्कान है एक नृत्य चल रहा है, एक अहर्निश नृत्य चल रहा है। इसलिए तो हिंदुओं ने परमात्मा को नटराज कहा है। वह नाच रहा है। और इस नटराज में भी बड़ा अर्थ है। अगर मूर्तिकार मूर्ति बनाता है तो मूर्ति अलग हो जाती है मूर्तिकार अलग हो जाता है। मूर्तिकार मर जाए तो भी मूर्ति रहेगी। लेकिन नर्तक के मरने पर नृत्य नहीं बचता। नर्तक और नृत्य अलग किये ही नहीं जा सकते। नर्तक गया कि नृत्य भी गया। परमात्मा को मूर्तिकार नहीं कहा। जिन्होंने कहा उन्होंने जाना नहीं। कुछ हैं जो कहते हैं, परमात्मा कुंभकार जैसा है, कुम्हार जैसा है। जिन्होंने कहा, कुम्हार ही रहे होंगे; ज्यादा बुद्धि न रही होगी। परमात्मा मटके नहीं बना रहा है। परमात्मा नटराज है नाच रहा है। नृत्य बंद हुआ, परमात्मा हटा कि फिर तुम बचा न सकोगे कुछ। इसको यूं समझो : न तो तुम नृत्य को नर्तक से अलग कर सकते हो और न तुम नर्तक को नृत्य से अलग कर सकते हो। क्योंकि जैसे ही नृत्य बंद हुआ, नर्तक नर्तक न रहा। नर्तक तभी तक है जब तक नृत्य है। दोनों संयुक्त हैं। दोनों एक ही लहर के दो हिस्से हैं, अलग-अलग नहीं हैं। परमात्मा नाच रहा है। यह सारा जगत उसका नृत्य है। प्रमोद में, अहोभाव में, स्वांत: सुखाय! - इसलिए इस पहले सूत्र में प्रमाद की जगह प्रमोद कर लेना। प्रमाद तो बड़ा ही गलत शब्द है। प्रमाद के दो अर्थ हो सकते हैं। एक तो जैनों और बौद्धों का अर्थ है. प्रमाद यानी मूर्छा। तो महावीर निरंतर अपने भिक्षओं को, अपने संन्यासियों को कहते हैं ' अप्रमाद में जीयो! अप्रमत्त!' बुद्ध अपने भिक्षुओं को कहते है. 'प्रमाद में मत रहो! जागो! मूच्छो तोड़ो। हिंदुओं का अर्थ है प्रमाद का. प्रारब्ध कर्मों के कारण। 'जो स्वभाव से शून्यचित्त हैं, वे प्रमाद के कारण अर्थात अपने पिछले जन्मों के कर्मों के कारण विषय-वासनाओं में उलझे रहते हैं। फिर भी सोते हुए में जैसे जागरण हो ऐसे वे पुरुष संसार से मुक्त लेकिन यह बात भी ठीक नहीं है। क्योंकि जिसने यह जान लिया कि मैं कर्ता नहीं हूं, उस पर पीछे-आगे, वर्तमान, अतीत, भविष्य सारे कर्मों का बंधन छुट जाता है। बंधन तो कर्ता होने में था। सुबह तुम जाग गए और तुमने जान लिया कि जो रात देखा वह सपना था फिर क्या सपने का प्रभाव तुम पर रह जाता है? जाग गए कि सपना समाप्त हो गया। कोई यह कहे कभी-कभी छोटे बच्चों में रहता है : रात सपना देखा, खेल-खिलौने खूब थे, फिर नींद खुली, हाथ खाली पाए, तो बच्चा रोने लगता है कि मेरे खिलौने कहां गए! क्योंकि छोटे बच्चे को अभी सपने में और जागरण में सीमा रेखा नहीं, भेद-रेखा नहीं। अभी उसे पक्का पता नहीं है कि कहां सपना समाप्त होता है, कहां जागरण शुरू होता है। मुक्तपुरुष को पता नहीं होगा कि कहां सपना टूटा और कहां जागरण शुरू हुआ! हमको
SR No.032111
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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