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________________ और यही घटना घटती है प्रेमी को। वह मिटाता है 'मैं' को। एक दिन 'मैं पूरा गिर जाता है। जिस दिन 'मैं पूरा गिर जाता है, 'तू कैसे बचेगा? जब 'तू को कहने वाला न बचा, जब पुजारी न बचा, जब आराधक न बचा तो आराध्य कैसे बचेगा? जब भक्त न बचा तो भगवान कैसे बचेगा? भक्त के साथ ही भगवान बच सकता है। भक्त तो गया, शून्य हो गया तो भगवान का क्या अर्थ, क्या प्रयोजन? जिस दिन भक्त शून्य हो जाता है, उसी दिन भगवान भी विदा हो जाता है। सब खेल दो का है, दो के बिना खेल नहीं। सब संसार द्वि है, द्वैत है। तुम एक को गिरा दो किसी भी तरह, दूसरा अपने से गिरेगा। एक को तुम मिटा दो, दूसरा अपने से मिटेगा। दोनों साथ-साथ चलते हैं। जैसे एक आदमी दो पैरों पर चलता है; तुम एक तोड़ दो, फिर चलेगा? फिर कैसे चलेगा? पक्षी दो पंखों पर उड़ता है; तुम एक काट दो, फिर उड़ेगा? एक से कैसे उड़ेगा? स्त्री-पुरुष, दो से संसार चलता है। तुम सारी स्त्रियों को मिटा डालो, पुरुष बचेंगे? कितनी देर? तुम सारे पुरुषों को मिटा डालो, स्त्रियां बचेंगी? कितनी देर? यह खेल दो का है। यह संसार एक से नहीं चलता। जहां एक बचा, वहा तो समझ लेना दोनों नहीं बचे। इसलिए तो ज्ञानियों ने, भक्तों ने, प्रेमियों ने, जानने वालों ने परमात्मा को एक नहीं कहा, अद्वैत कहा। अद्वैत का मतलब-दो न रहे। एक कहने में खतरा है। क्योंकि एक का तो अर्थ ही होता है कि दूसरा भी होगा। अगर कहें एक ही बचा, तो एक की परिभाषा कैसे करोगे, सीमा कैसे खीचोगे? एक की सीमा दो से बनती है, दो की सीमा तीन से बनती है, तीन की सीमा चार से बनती है-यह फैलाव फैलता चला जाता है। इसलिए हमने एक अनूठा शब्द चुन-अद्वैत; दो नहीं। पूछो परम ज्ञान को उपलब्ध व्यक्ति को, परमात्मा एक है या दो? तो वह यह नहीं कहेगा एक या दो; वह कहेगा, दो नहीं। बस इतना ही कह सकते हैं, इसके पार कहा नहीं जा सकता। न एक है, न दो है। दो नहीं है, इतना पक्का है। इससे ज्यादा वाणी सार्थक नहीं, समर्थ नहीं। तो चाहे प्रेम से चलो, चाहे सत्य की खोज करो-स्व घड़ी आएगी, न दूसरा बचता, न तुम बचते। तब जो बच रहता है, वही सार है, वही पूर्ण है। भक्त उसे भगवान कहेगा जो बच रहता है, ज्ञानी उसे आत्मा कहेगा। यह सिर्फ अलग- अलग भाषा, परिभाषा की बात है; बात वही है। इसलिए सबसे महत्वपूर्ण है यह खोज लेना कि तुम कहा हो? तुम क्या हो? तुम कैसे हो? कहीं गलत मार्ग पर मत चल पड़ना। जो मार्ग तुमसे मेल न खाए, वह तुम्हें पहुंचा न सकेगा। जो मार्ग तुमसे न निकलता हो वह तुम्हें पहुंचा न सकेगा। तुम्हारा मार्ग तुम्हारे हृदय से निकलना चाहिए। जैसे मकड़ी जाला बुनती है, खुद ही निकालती है, अपने ही भीतर से बुनती है-ऐसा ही साधक भी अपना जीवनपथ अपने ही भीतर से बुनता है। अगर प्रेम का जाल बुनने में समर्थ हो तो भक्ति तुम्हारा मार्ग है। फिर अष्टावक्र कुछ भी कहें, तुम फिक्र मत करना; तुम नारद की सुनना तुम चैतन्य, मीरा को गुनना। लेकिन अगर तुम पाओ कि यहां हृदय से प्रेम के धागे निकलते नहीं, प्रेम का जाल बनता नहीं, तो घबड़ा मत जाना, रोने मत बैठ जाना। कोई अड़चन नहीं है। प्रत्येक के लिए उपाय है। तुम जिस क्षण पैदा हुए उसी
SR No.032111
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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