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________________ 'इसलिए मैं हानि और लाभ दोनों को छोड़कर सुखपूर्वक स्थित हो' स्वप्न में तुम हों-तुम्ही हो जागरण में। कब उजाले में मुझे कुछ और भाया कब अंधेरे ने तुम्हें मुझसे छिपाया तुम निशा में और तुम्हीं प्रातः -किरण में स्वप्न में तुम हो -तुम्ही हो जागरण में। ध्यान है केवल तुम्हारी ओर जाता ध्येय में मेरे नहीं कुछ और आता चित्त में तुम हो-तुम्ही हो चितवन में स्वप्न में तुम हो-तुम्ही हो जागरण में। रूप बन कर घूमता जो वह तुम्हीं हो राग बन कर गूंजता जो वह तुम्हीं हो तुम नयन में और तुम्हीं अंतःकरण में स्वप्न में तुम हों तुम्ही हो जागरण में। प्रतिपल एक ही है। वह कभी दो नहीं हुआ अनेक नहीं हुआ। वह अनेक भासता है। जैसे रात चांद हो पूर्णिमा का और जितनी झीलें हैं जगत में, सभी में झलकता है और अनेक-अनेक मालूम है। डबरों में, झीलों में, सागर में, नदियों में, सरोवरों में कितने प्रतिबिंब बनते हैं! चांद एक है। उपर आंख उठा कर देखो तो एक है; नीचे प्रतिबिंबों में भटक जाओ तो अनेक है। लेकिन तुम जब सोचते हो कि अनेक है, तब भी चांद तो एक ही है। तुम्हारे सोचने से सिर्फ तुम्ही भ्रांत होते हो, चांद अनेक नहीं होता, चांद तो एक ही है। _ 'सोते हुए मुझे हानि नहीं न यत्न करते हुए मुझे सिद्धि है।' ऐसा जिसने जान लिया, क्या उसके जीवन में तनाव हो सकता है? बेचैनी हो सकती है? यह तो ध्यानातीत, समाधि-अतीत अवस्था हो गई। 'इसलिए अनेक परिस्थितियों में सुखादि की अनित्यता को बारंबार देख कर और शुभाशुभ को छोड़ कर मैं सुखपूर्वक स्थित हो' सुखादिरूपानियम भावेम्बालोक्य भूरिशः। बहुत-बहुत बार देख लिया सुख-दुख, लाभ-हानि, सब अनित्य है। शुभाशुभे विहायास्मादहमासे यथासुखम्।
SR No.032111
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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