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________________ स्वर्ण-सिंहासनों में जरा भी रस नहीं; मुझे तो मेरी राह की धूल ही प्रिय है। मुझे तुम्हारे महलों में कोई रस नहीं है; मुझे तो धूल भरी राह ही प्रिय है।' ऐसे ही भाव थे। सिर हिले लोगों के। लोग बड़े मगन थे। भजन सुना कर मुझे चुप देख कर उन्होंने पूछा आपने कुछ कहा नहीं! आपको भजन पसंद नहीं पड़ा?' मैंने कहा कि मैं जरा अड़चन में पड़ गया। अगर आपको सम्राटों के सिंहासनों में कोई रस नहीं है तो भजन लिखने का कष्ट क्यों उठाया?: क्योंकि मैं सम्राटों से भी मिला हूं उनमें से किसी ने भी मुझे ऐसा भजन नहीं सुनाया कि रहे आओ मस्त तुम अपनी धूल में हमें तुम्हारी धूल से न कोई लगाव न ईर्ष्या है। मैंने सम्राटों को, संन्यासियों के साथ ईर्ष्या नहीं है, ऐसा कोई गीत गाते नहीं सुना। संन्यासी ही सदा यह गीत गाते हैं, यह जरा सोचने जैसा है। होना तो उल्टा चाहिए कि सम्राट को ईर्ष्या पैदा हो संन्यासी से। अपने को समझाने को वह कहे कि 'नहीं, मैं तो अपने महल में ही हूं। तुम ही मजे में अपने झोपड़ों में, रहो अकिंचन, मैं तो सम्राट ही ठीक हूं।' लेकिन कोई सम्राट ऐसा कहता नहीं। संन्यासी सदियों से कहते रहे कि हमें तुम्हारे सिंहासन से कोई रस नहीं है। स नहीं है तो इतना श्रम क्यों उठाया? रस है। तुम अपने को समझा रहे हो। तुम अपने को ही जोर-जोर से बोल कर भरोसा दिला रहे हो। ऐसा होता है न कभी अंधेरी रात में, अकेले जा रहे हो तो जोर-जोर से गाना गाने लगते हो ! डर लगता है, गाना गाते हो। हालांकि गाना गाने से कुछ स्थिति बदलती नहीं; लेकिन खुद की ही आवाज सुन कर हिम्मत आ जाती है। लोग सीटी बजाने लगते हैं। गली में से निकल रहे हैं, अंधेरा है, लोग सीटी बजाने लगते हैं। अपनी ही सीटी की आवाज सुन कर थोड़ी हिम्मत आ जाती है, गर्मी आ जाती है। कम से कम इतना तो हो जाता है कि हम कोई डरे हुए नहीं हैं, गाना गा रहे हैं ! लेकिन यह गाना ही खबर देता है कि भय है। मैंने कहा :' आपको जरूर महलों में रस रह गया है, लगाव बाकी है। सिंहासन आपको दिखाई पड़ता है। अन्यथा संन्यासी को क्या चिंता ! सम्राट ईर्ष्यालु हों, यह समझ में आता है; और सम्राट अपने को समझाने के लिए इस तरह के गीत गाएं, यह भी समझ में आता है।' उनको कुछ समझ में न आया। वे बड़ी मुश्किल में पड़ गए। बात तो चोट कर गई। दूसरे दिन मुझे फिर बुलाया| जब दूसरे दिन मुझे बुलाया तो वहा कोई शिष्य न था। मैंने पूछा :'शिष्यों की भीड़ क्या हुई?' उन्होंने कहा कि आज मैं एकांत में बात करना चाहता हूं, उनके सामने बात नहीं हो सकती। आपने कैसे पहचाना? बात आपने पते की कही। मुझे रस है । आपने मेरे घाव को छू दिया। मैं तिलमिला गया, वह भी सच है, रात भर सो न सका, सोचता रहा। धन में मुझे रस है; पहले भी था। धन पा न सका, इसलिए अंगूर खट्टे हो गए । मैंने छोड़ दिया संसार। और जब संसार छोड़ा तो मैं बड़ा चकित हुआ जिन धनपतियों के द्वार पर मुझे द्वारपाल की नौकरी भी न मिल सकती थी, वे मेरे पैर छूने आने लगे। और तब से मैं निरंतर धन के खिलाफ बोल रहा हूं। यह कोई एक भजन नहीं जो मैंने गाया, मैंने जितने भजन गाए सब धन के खिलाफ हैं। आपने बात पकड़ ली। बड़ी कृपा कि आपने
SR No.032111
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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