SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 98
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ है! उल्लू के पट्टे का मतलब हुआ कि तुम खुद ही उल्लू हो। तब तो उल्लू का पट्टा! 'किस नालायक ने तुझे पैदा किया! हरामजादे!' उसने सोचा, पंडित ने, वह भी बैठा धूप ले रहा है। उससे न रहा गया। उसने कहा कि मुल्ला तुम यह सोचो तो, ये गालियां किसको लगती हैं? मुल्ला ने कहा. जो साला गालियों को समझता है, उसी को लगती हैं! मैं तो समझता नहीं और यह तो उल्लू का पट्टा है, यह क्या खाक समझेगा! आप ही समझो! जो समझता है, उसी को लगती हैं। कहते हैं, पंडित जल्दी से उठ कर घर के अंदर चला गया। उसने कहा कि झंझट.. हम इस झंझट में क्यों पड़े? एक तो बच्चे हैं, पागल हैं; पशु-पक्षी हैं, पौधे हैं-वहा कुछ पाप नहीं है, क्योंकि वहां कोई समझ नहीं है। फिर बुद्धपुरुष हैं, अष्टावक्र हैं, जीसस हैं, महावीर हैं-वहां बोध इतना सघन हुआ है कि कर्ता का भाव नहीं रहा। इन दोनों को कोई पाप नहीं है। पाप तो बीच में पंडितो को है, जो समझते हैं। तुम समझते हो कि तुमने किया, इसलिए तुम पापी हो जाते हो। तुम समझते हो कि तुमने किया इसलिए तुम पुण्यात्मा हो जाते हो। हम समझते हो तुमने किया इसलिए भोगी। तुम समझते हो तुमने किया-इसलिए त्यागी। जिस दिन तुम समझोगे तुमने कुछ किया ही नही–जो हो रहा है, हो रहा है; तुम सिर्फ देखने वाले हो उस दिन न पाप है न पुण्य है; न योग है न भोग है। इसलिए अष्टावक्र परम योग की बात कह रहे हैं। यह योग के भी पार जाने वाली बात है। ऐसी अवस्था में न तो कोई विधि रह जाती है, न कोई निषेध रह जाता है। जनक कहने लगे. आत्यवेदं जगत्सर्वं ज्ञात येन महात्मना। 'जिन महात्माओं ने अपने को जगत के साथ एक समझ लिया, जान लिया.। ' __यदृच्छया वर्तमान तं निषेधुं क्षमेत क। '.. अब वे कैसे रोकें, क्या रोकें, क्या बदलें?' बदलाहट की आकांक्षा भी अहंकार की ही आकांक्षा है। साधना भी अहंकार का ही आयोजन है। अनुष्ठान भी अहंकार की ही प्रक्रिया है। इसलिए तो जनक ने कहा कि आप ही तो कहे कि अधिष्ठान, अनुष्ठान, आधार, आश्रय सब बाधाएं हैं। करने को कुछ बचा नहीं, क्योंकि कर्ता नहीं बचा। इसका यह अर्थ नहीं कि कर्म नहीं बचा। कर्म तो चलेगा। कर्म की तो अपनी धारा है। शरीर को भूख लगेगी, शरीर भोजन मांगेगा। इतना ही फर्क होगा अब कि तुम जाग कर देखते रहोगे कि शरीर को भूख लगी है, शरीर को भोजन दे दो। मगर भूख भी शरीर की है, भोजन से आने वाली तृप्ति भी शरीर की है। तुम भूख के भी द्रष्टा हो, तुम तृप्ति के भी द्रष्टा हो, तुम हर हालत में द्रष्टा हो। कर्म तो जारी रहेगा। कर्म तो विधि है, भाग्य है। कर्म तो समस्त का है, व्यक्ति का नहीं है-समष्टि का है। वह परमात्मा चल रहा है। हजार-हजार कृत्य चल रहे हैं। वह तुमसे जो भी काम लेना चाहता है, लेता रहेगा। लेकिन अब तुम जानते हो कि तुम कर्ता नहीं हो। तुम निमित्त मात्र हो। इस स्थिति में जनक कहते हैं कौन
SR No.032110
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year
Total Pages407
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy