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________________ के। सब नकली हैं, मगर ऐसा रस पैदा हो जाता है कि जी-जान की बाजी लग जाती है। लोग खेल में इतनी गंभीरता ले लेते हैं और साधक वही है जो गंभीरता में भी खेल ले ले। संसारी वही है जो खेल को भी गंभीर बना लेता है। और संन्यासी वही है जो गंभीरता को भी खेल बना लेता है। तुम अमर प्रतिज्ञा हो, मैं पग विरह पथिक का धीमा! सुनो तुम अमर प्रतिज्ञा हो, मैं पग विरह पथिक का धीमा। आते -जाते मिट जाऊं पाऊं न पंथ की सीमा। भक्त कहता है पंथ की सीमा कहा पानी, किसको पानी, पा कर करना क्या? आते -जाते मिट जाऊं पाऊं न पंथ की सीमा। पाने में तुमको खोऊं खोने में समझू पाना! यही छिया-छी का अर्थ है। यह चिर अतृप्ति हो जीवन चिर तृष्णा हो मिट जाना! तुम्हें खोजते –खोजते मिट जाऊं! तुम्हारी तृष्णा बनी ही रहे! तुम्हारी प्यास जलती ही रहे! मैं तुम्हें पा कर तृप्त नहीं हो जाना चाहता- भक्त कहता है। भक्त कहता है, तुम्हारी अतृप्ति इतनी प्यारी! मेघों में विदयुत सी छवि उनकी, बनकर मिट जाती। कभी-कभी बनेगी परमात्मा की छवि, मिटेगी परमात्मा की छवि! आंखों की चित्रपटी में जिससे मैं आंक न पाऊं। वह बनेगी और मिटेगी इतनी शीघ्रता से कि तुम्हारे मन में तुम उसको संजो न पाओगे। तुम मन में प्रतिमा न बना पाओगे। तुम्हारा अहोभाव अहोभाव ही रहेगा। तुम यह न कह पाओगे : मैंने जान लिया। इसलिए उपनिषद कहते हैं. जो कहता है मैंने जान लिया, उसने नहीं जाना। और जो कहता है मुझे कुछ भी पता नहीं, शायद उसे पता हो। मेघों में विदयुत-सी छवि
SR No.032110
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year
Total Pages407
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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