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________________ फिर तो भक्त कहता है, मुझे तृप्त मत कर देना, क्योंकि मैं तृप्त हो गया तो फिर तुम्हें न खोजूंगा। तुम्हें खोजना- इसके मुकाबले क्या तृप्ति में रस हो सकता है? तुम्हारी प्रतीक्षा, तुम्हारा इंतजार - इससे ज्यादा और रस कहां हो सकता है ? मेरे छोटे जीवन में देना न तृप्ति का कणभर रहने दो प्यासी आंखें भरती आंसू के सागर तुम फिक्र मत करना, तुम ज्यादा परेशान मत हो जाना कि मेरी आंख के आंसू सागर बनाए दे रहे हैं। तुम फिक्र मत करना। इसमें मुझे आनंद आ रहा है। मैं रसमग्न हूं। यह मैं दुख से नहीं रो रहा हूं! भक्त आनंद से रोने लगता हैं, अहोभाव से रोने लगता है। उसके आंसुओ में फूल हैं, कांटे नहीं; शिकायत नहीं, शिकवा नहीं; प्रार्थना है, कृतज्ञता ज्ञापन है, आभार है, शुक्रिया है ! जो बड़े पैमाने पर परमात्मा और सृष्टि के बीच हो रहा है, एक छोटे पैमाने पर वही खेल गुरु और शिष्य के बीच है। और छोटे पैमाने पर तुम खेलना सीख जाओ तो फिर बड़े पैमाने पर खेल सकोगे, इतना ही उपयोग है। जैसे एक आदमी तैरना सीखने जाता है तो नदी के किनारे तैरना सीखता है; एकदम से नदी की गहराइयों में नहीं चला जाता, डूबेगा नहीं तो। किनारे पर, जहां उथला - उथला जल है, जहां गले-गले जल है, वहां तैरना सीखता है; फिर धीरे - धीरे गहराई में जाना शुरू होता है। गुरु, जैसे किनारा है परमात्मा का लो। फिर जब तुम कुशल हो जाओ तैरने में अर्थ समझ जाओ - तो फिर जाना गहन में तो वहां तुम थोड़ा खेल सीख लो, वहां तुम थोड़ी क्रीड़ा कर और तुम जब खेल के नियम सीख जाओ और लीला का गहरे में! फिर उतरना सागरों में । गुरु तो केवल पाठ है परमात्मा में उतरने का। इसलिए जो बड़े पैमाने पर सृष्टि में हो रहा है वही छोटे पैमाने पर गुरु और शिष्य के बीच घटता है। ठीक तुमने पूछा, छिया-छी का खेल ही घटता है। एक बात गुरु तुमसे कहता है, तुम उसे पूरी करने लगते हो वह तत्क्षण दूसरी कहने लगता है। तुम एक बात मानने - मानने के करीब आते कि वह सब उखाड़ डालता है। तुम घर बनाने को हो कि वह आधार गिरा देता है। तुम जल्दी में हो कि किसी तरह हल हो जाए गुरु इतनी जल्दी में नहीं है। गुरु कहता है कि जो जल्दी हल हो जाएगा, वह कोई हल न हुआ । यह जीवन का ऐसा प्रगाढ़ रहस्य है कि यह जल्दी हल नहीं हो सकता। ये कोई मौसमी फूल के पौधे नहीं हैं। ये बड़े दरख्त हैं जो आ को छूते हैं; जो हजारों साल जीते हैं; जो चांद-तारों से बात करते हैं; इनमें प्रतीक्षा..! मैंने सुना है, महर्षि कश्यप की पत्नी को बड़ी आकांक्षा थी कि एक ऐसा पुत्र हो जो महासत्व हो। साधारण पुत्र की आकांक्षा नहीं थी । कश्यप की पत्नी थी, साधारण पुत्र की आकांक्षा भी क्या करती ! कम से कम कश्यप जैसा तो हो। कश्यप से बड़ा हो, ऐसी आकांक्षा थी। महासत्व हो, बोधिसत्व हो,
SR No.032110
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year
Total Pages407
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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