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________________ साल भर अगर तेरे को पाने की प्रार्थना की होती, तो शायद तेरे ही दर्शन हो जाते। मगर इन मूढ़ों को कुछ अक्ल न आई। मगर मैं भी मूढ़ हूं मुझे क्षमा कर ! उस रात उसने बड़े निस्पृह मन से प्रार्थना की, उसमें कुछ मांग न थी! वह प्रार्थना करके उठ कर द्वार पर आया कि देखा कि गांव के लोग इकट्ठे हो रहे हैं। उसने पूछा : मामला क्या है? लोगों कहा. हम सबने मिल कर तय किया कि तुम उस मस्जिद के व्यवस्थापक हो जाओ। साल भर से हम देखते हैं, तुम जैसा कोई नमाजी कभी हुआ वह तो बड़ा हैरान हुआ कि आज तो मैंने छोड़ी आकांक्षा और आज ही आकांक्षा पूरे होने का दिन आ गया! लेकिन तब उसे होश भी आया। उसने कहा कि क्षमा करो मित्रो, साल भर तो मैं आकांक्षा करता था, तब तुम कहां थे? अब तुम आए हो जबकि मैं आकांक्षा छोड़ चुका। जब आकांक्षा छोड़ने से ऐसा फल मिलता है तो अब आकांक्षा न करूंगा, अब तुम व्यवस्थापक किसी और को बना लो। और उसे इतना बोध हुआ इस घटना से कि वह सब छोड़-छाड़ कर फकीर हो गया। 'मलिक बिन दीनार उसका नाम था। कहते हैं कि उसने मोक्ष की भी आकांक्षा नहीं की फिर । स्वर्ग की आकांक्षा का तो सवाल ही नहीं; उसने आकांक्षा ही नहीं की। जब मरा तो किसी बुजुर्ग को सपने में दिखाई दिया और बुजुर्ग ने पूछा क्या खबर है? वहा कैसा हुआ? क्योंकि जिस दिन मलिक बिन दीनार मरा, उसी दिन एक और फकीर मरा-हसन नाम का एक फकीर मरा। दोनों की बड़ी ख्याति थी । तो पूछा बुजुर्ग ने कि तुम दोनों साथ-साथ मरे, एक ही समय मरे, तो मोक्ष के दरवाजे पर एक साथ पहुंचे होओगे, पहले प्रवेश किसको मिला ? किन दीनार ने कहा कि मैं भी बड़ा चकित हूं, पहले प्रवेश मुझको मिला। और मैंने पूछा प्रभु को कि मुझे प्रवेश पहले देने का क्या कारण है? क्योंकि हसन मुझसे ज्यादा बुद्धिमान है। हसन मुझसे ज्यादा ज्ञानी है। हसन के पास तो मैं भी सीखने जाता था। तो प्रभु ने कहा. तुझसे ज्यादा ज्ञानी है, वह तुझसे ज्यादा त्यागी है; लेकिन उसके मन में मोक्ष की आकांक्षा थी और तेरे मन में मोक्ष की आकांक्षा न थी ! तू पहले प्रवेश का हकदार है। मोक्ष की आकांक्षा भी जिसकी छूट गई हो; जिस महात्मा का मन मोक्ष की भी स्पृहा न करता हो और जो आत्मज्ञान से तृप्त है, और जो अपने होने से तृप्त है; जिसकी तुष्टि अपने में है; जो अब कुछ भी नहीं मांगता, जो कहता है मेरा होना काफी है, काफी से ज्यादा है; और मुझे चाहिए क्या-जो ऐसा कहता है! जो कहता है, मैंने अपने को जान लिया, भर पाया, खूब पाया, मिल गया सब, अब मुझे कुछ भी नहीं चाहिए ! 'आत्मज्ञान से जो तृप्त है. ...' ' · तस्यात्म ज्ञानतृप्तस्य तुलना केन जायते। .. उसकी तुलना किसी से भी नहीं हो सकती । ' तो जनक, तेरे मन में मोक्ष की स्पृहा तो नहीं है? अभी भी तेरे मन में मुक्त होने की आकांक्षा तो नहीं है? तुझे जो यह आत्मज्ञान हुआ है जैसा तू कह रहा है कि हो गया, इससे परितृप्त हो गया
SR No.032110
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year
Total Pages407
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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