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________________ हैं और जो कहते हैं यह यात्रा समाप्त हुई यह व्यर्थ की दौड़-धाप बंद हुई यह सपना अब और नहीं देखना है! मोक्षकामस्य मोक्षात् एव विभीषिका आश्चर्यम्। -तो तू जरा देख, उस पर आश्चर्य कर अगर कहीं भय हो। 'धीर-पुरुष तो भोगता हुआ भी और पीड़ित होता हुआ भी नित्य केवल आत्मा को देखता हुआ न प्रसन्न होता है और न क्रूद्ध होता है।' धीरस्तु भोज्यमानोउपि पीड्यमानोउपि सर्वदा। आत्मानं केवलं पश्यन् न तुष्यति न कुप्यति|| कहने लगे अष्टावक्र कि जनक, देख, जो वस्तुत: ज्ञान को उपलब्ध हो गया, जो धीर-पुरुष है, वह फिर न तो प्रसन्न होता है और न क्रुद्ध होता है। हानि हो तो अप्रसन्न नहीं, लाभ हो तो प्रसन्न नहीं। मान हो तो प्रसन्न नहीं, अपमान हो तो क्रूद्ध नहीं। तू जरा भीतर देख, अगर तेरा सम्मान हो, तो तू प्रसन्न होगा? अगर तेरा अपमान हो, तो तू नाराज होगा? अगर तू हारे जीवन में आज तू सम्राट है कल भिखारी हो जाना पड़े-तो तेरे चित्त में कोई अंतर पड़ेगा? अगर रेखा मात्र का भी अंतर पड़ता हो, तो अभी जल्दी मत कर। यह घोषणा बड़ी है जो तू कर रहा है, यह घोषणा मत कर। फिर यह घोषणा अयोग्य है और खतरनाक है, क्योंकि कहीं इस घोषणा का तू भरोसा करने लगे कि यह सत्य है, तो फिर तू सत्य को कभी भी न पा सकेगा। __गुरु की यह सतत चेष्टा दिखाने की, कि कहीं तुम किसी भ्रांत धारणा को जो नहीं हुई है ऐसा मत मान लेना कि हो गई है। बड़ी अनिवार्य है गुरु की यह उपदेशना, बड़ी करुणामयी है! क्योंकि मन तो बड़े जल्दी मानने को होता है कि हो गया और जब बिना किए हो रहा हो तो दिक्कत ही क्या? पतंजलि के साथ तो यह खतरा नहीं है, अष्टावक्र के साथ बहुत खतरा है। इसलिए पतंजलि कोई परीक्षा भी नहीं लेते, अष्टावक्र परीक्षा लेते हैं। यह तुमने खयाल किया? पतंजलि के साथ कोई खतरा नहीं है; वे एक-एक इंच बढ़ाते हैं। वे उतना ही बढ़ाते हैं जितना संभव है साधारण मनुष्य को बढ़ना। छलांग वहां नहीं है। और एक सीढ़ी चढ़ो तो ही दूसरी सीढ़ी पर चढ़ सकते हो। पहली सीढ़ी अगर नहीं चढ़ पाए तो दूसरी पर चढ़ ही न पाओगे। इसलिए पतंजलि परीक्षा की कोई व्यवस्था नहीं करते। लेकिन अष्टावक्र ने परीक्षा की व्यवस्था की-करनी ही पड़ी। क्योंकि अष्टावक्र तो कहते हैं कोई सीढ़ी नहीं; चाहो तो तत्क्षण, अभी इसी क्षण मुक्त हो सकते हो! यह सुन कर कई पागल तल्लण घोषणा कर देंगे कि हम मुक्त हो गए। इन पागलों को खींच कर इनकी जगह लाना पड़ेगा। इनके लिए सूत्र दिए जा रहे हैं। 'जो अपने चेष्टारत शरीर को दूसरे के शरीर की भांति देखता है, वह महाशय पुरुष स्तुति और निंदा में भी कैसे क्षोभ को प्राप्त होगा?' चेष्टमानं शरीरं स्वं पश्यत्यन्यशरीरवत। जो अपने शरीर को भी ऐसा देखता है जैसे किसी और का शरीर है; जो अपने शरीर को भी
SR No.032110
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year
Total Pages407
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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