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________________ तो मान ही लिया। परमात्मा अनन्य है। वही है, हम नहीं हैं, या हम ही हैं, वह नहीं है। दो नहीं हैं, एक बात पक्की है। मैं और तू ऐसे दो नहीं हैं। या तो मैं ही हूं अगर ज्ञान की भाषा बोलनी हो; अगर भक्त की भाषा बोलनी हो तो तू ही है। मगर एक बात पक्की है कि एक ही है। तो फिर क्या सार है? क्या अर्थ है भू: 'हां' कहो कि 'ना' कहो, किससे कह रहे हो? अपने से ही कह रहे हो। एक झेन फकीर, बोकोजू रोज सुबह उठता तो जोर से कहता बोकोजू! और फिर खुद ही बोलता. 'जी ही! कहिए, क्या आज्ञा है?' फिर कहता है कि देखो ध्यान रखना, बुद्ध के नियमों का कोई उल्लंघन न हो। वह कहता. 'जी हजूर! ध्यान रखेंगे। ' कोई भूल-चूक न हो, स्मरणपूर्वक जीना! दिन फिर हो गया। वह कहता : 'बिलकुल खयाल रखेंगे। ' __उसके एक शिष्य ने सुना कि यह क्या पागलपन है! यह किससे कह रहा है! बोकोजू इसी का नाम है। सुबह उठ कर रोज-रोज यह कहता है. बोकोजू! और फिर कहता है : 'जी ही, कहिए क्या कहना है? 'उस शिष्य ने कहा कि महाराज, इसका राज मुझे समझा दें। बोकोजू हंसने लगा। उसने कहा, यही सत्य है। यहां दो कहां पू यहां हम ही आज्ञा देने वाले हैं, हम ही आज्ञा मानने वाले हैं। यहां हमी स्रष्टा हैं और हमी सृष्टि। हमीं हैं प्रश्न और हमी हैं उत्तर। यहां दूसरा नहीं है। इसलिए तुम इसको मजाक मत समझना-बोकोजू ने कहा। यह जीवन का यथार्थ है। तुम मुझसे पूछते हो मेरा क्या उत्तर है? मैं यही कहूंगा एक है, दो नहीं हैं। अदवय है। इसलिए तुम नकारात्मक के भी पार उठो और विधायक के भी पार उठो-तभी अध्यात्म शुरू होता है। फर्क को समझ लेना-नकारात्मक यानी नास्तिक, अकारात्मक यानी आस्तिक। और नकार और अकार दोनों के जो पार है, वह आध्यात्मिक। अध्यात्म आस्तिकता से बड़ी ऊंची बात है। आस्तिकता तो वहीं चलती है जहां नास्तिकता चलती है; उन दोनों की भूमि भिन्न नहीं है। एक 'ना' कहता है, एक 'हा' कहता है। लेकिन दोनों मानते हैं कि परमात्मा को 'ही' और 'ना' कहा जा सकता है; हमसे भिन्न है। अध्यात्म कहता है, परमात्मा तुमसे भिन्न नहीं-तुम ही हो! अब क्या 'ही' और 'ना'? जो है, है। राजी हूं नाराजी हूं-यह बात ही मत उठाओ। इसमें तो अज्ञान आ गया। तुम मुझसे पूछते हो, मैं क्या कहूं? मैं कहूंगा जो है, है। कांटा है तो कांटा है, फूल है तो फूल है। न तो मैं नाराज हूं न मैं राजी हूं। जो है है। उससे अन्यथा नहीं हो सकता। अन्यथा करने की कोई चाह भी नहीं है। जैसा है, उसमें ही जी लेना। अष्टावक्र ने कहा : यथाप्राप्त! जो है, उसमें ही जी लेना; उसको सहज भाव से जी लेना। ना-नुच न करना, शोरगुल न मचाना, आस्तिकता-नास्तिकता को बीच में न लाना-यही परम अध्यात्म है। तीसरा प्रश्न :
SR No.032110
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year
Total Pages407
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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