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________________ हैं. अर्थ में सिर्फ अनर्थ है। मगर यह वे कहते हैं, यह तुमने नहीं जाना। इनकी सुन कर एकदम चल मत पड़ना; अनुयायी मत बन जाना, नहीं तो खतरा होगा। तुम्हारे पास अपनी आंखें नहीं हैं - तुम कहीं न कहीं खाई, खड्डे में गिरोगे। इनको बात समझना और जीवन की कसौटी पर कसना । अनुयायी मत बनना, अनुभव से सीखना। ये कहते हैं, तो ठीक कहते होंगे इस पर विश्वास कर लेने की कोई जरूरत नहीं है। ये कहते हैं तो ठीक ही कहते होंगे इस पर अविश्वास करने की भी कोई जरूरत नहीं है, लेकिन इस पर प्रयोग करने की जरूरत है। ये जो कहते हैं, उसे जीवन में उतारना, देखना । देखना अपनी वासना को । अगर तुम्हारा भी यही निष्कर्ष हो, तुम्हारा अवलोकन भी यही कहे कि बुद्ध ठीक कहते हैं, अष्टावक्र ठीक कहते हैं. लेकिन निर्णायक तुम्हारा अनुभव हो, बुद्ध का कहना नहीं । बुद्ध गवाह हों। मौलिक निष्पत्ति तुम्हारी अपनी हो । फिर तुम्हारे जीवन में जो वैराग्य होगा वह प्रौढ़ वैराग्य है। 'जहां-जहां तृष्णा हो, वहां - वहां संसार जान । अगर मोक्ष की भी तृष्णा हो, तो वह भी संसार है। इसलिए धर्म को भी कहा, त्याग कर देना । 'प्रौढ़ वैराग्य को आश्रय करके वीततृष्णा हो । ' प्रौढ़वैराग्यमाश्रित्य वीततृष्ण सुखी भव । अभी हो जा सुख को उपलब्ध! लेकिन पहले वैराग्य को प्रौढ़ हो जाने दे। यत्र यत्र तृष्णा भवेत तत्र संसारम् विधि वै । जहां –जहां है वासना, वहां-वहां संसार । समझना । वासना संसार है, इसलिए संसार को छोड़ने से कुछ भी न होगा। वासना छोड़ने से सब कुछ होगा। संसार तो वासना के कारण निर्मित होता है। तुम संसार से भाग गए तो कुछ लाभ नहीं । वासना साथ रही तो नया संसार निर्मित हो जाएगा। जहां तुम होओगे, वहीं ब्दप्रिंट तुम्हारे पास है, फिर तुम खड़ा कर लोगे। उससे तुम बच न पाओगे । उसका बीज तुम्हारे भीतर है। वासना बीज है, संसार वृक्ष है। बीज को दग्ध करो, वृक्ष से मत लड़ने में लग जाना। ...... तत्र संसारम् विद्धि वै। प्रौढ़ वैराग्यम् आश्रित्य वीततृष्ण सुखी भव । । और प्रौढ़ता को उपलब्ध हो ! इसलिए कच्चे –कच्चे भागो मत। गैर अनुभव में भागो मत। भगोड़े मत बनो। पलायनवादी मत बनो। जीवन की गहराई में, सघन में खड़े हो कर जीवन को सब तरह जान कर .. । कामवासना में उतर कर ही तुम कामवासना से मुक्त हो सकोगे। कामवासना की गहराइयों में उतर कर ही तुम जान पाओगे व्यर्थता। धन की दौड़ में दौड़ कर ही तुम पाओगे मिलता कुछ भी नहीं। महत्वाकांक्षा में जी कर ही तुम्हें पता चलेगा कि सिर्फ दग्ध करती है महत्वाकाक्षा, जलाती है; ज्वर है, सन्निपात है। राजनीति में पड़ कर ही तुम जानोगे कि राजनीति रोग है, विक्षिप्तता है, पागलपन है। जीवन को अनुभव से पकने दो। और जब जीवन का अनुभव तुम्हारा कह दे तो फिर वैराग्य
SR No.032110
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year
Total Pages407
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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