SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 368
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ होते हो-तब अर्थ, अन्यथा अनर्थ। __ वैरिणम् कामम् अनर्थसंकुलम् अर्थम् एतयो: __ हेतुम् वर्मन् अपि विहाय सर्वत्र अनादरम् कुरु। और इन सबके भीतर-यह सूत्र बड़ा क्रांतिकारी है और इन सबके भीतर, सबका मूलरूप कारण, सारे अनर्थ, काम और धन की दौड़ के पीछे जो मूल कारण है, वह धर्म है। यह तुम चौकोगे सुन कर। क्योंकि तुमने सदा यही सुना है कि धर्म तो त्राण है, कि धर्म तो नाव है जिसमें बैठ कर हम उस पार उतर जाएंगे। और अष्टावक्र कहते हैं, इन दोनों का कारण-रूप धर्म है। इस सारे उपद्रव का कारण धर्म है। क्यों? धर्म का अर्थ है कि मोक्ष पाना है। धर्म का अर्थ है कि मोक्ष पाने के लिए कुछ करना है। यह मूल कारण है उपद्रव का। तृप्ति के लिए कुछ करना है-फिर उसी से अर्थ भी पैदा होता है, उसी से काम भी पैदा होता है। मोक्ष की उदघोषणा यह है कि कुछ करना नहीं है, तुम मुक्त पैदा हुए हो। इस क्षण अभी और यहीं मोक्ष तुम्हारा स्वभाव है। तुम्हारी उदघोषणा की भर बात है। तुम जब चाहो घोषणा कर दो-और उसी क्षण से आनंद की वर्षा हो जाएगी। समझने की कोशिश करो। साधारणत: हम चीजों को हमेशा दो में बांट देते हैं-साधन और साध्य। साध्य होता है भविष्य में, साधन होता है अभी। मोक्ष के संबंध में या परमात्मा के संबंध में बात उल्टी है। मोक्ष अभी है यहीं है। किसी साधन की कोई जरूरत नहीं है-सिर्फ जागना है। सिर्फ आंख खोल कर देखना है-सूरज निकला हुआ है। रात कहीं भी नहीं तुम पलक बंद करके बैठे हो, इसलिए अंधेरा मालूम हो रहा है। किसी साधन की कोई भी जरूरत नहीं है, क्योंकि साधन का तो मतलब यह होगा कि आज तैयारी करेंगे, तब कल मिलेगा। यह तो फिर वही दौड़ शुरू हो गई। आज धन कमाएंगे तो कल धनी होंगे। आज स्त्री खोजेंगे, तो कल मिलेगी। यह तो फिर परमात्मा के नाम पर भी वही दौड़ शुरू हो गई। नहीं, परमात्मा आज है! संसार कल है और परमात्मा आज है संसार में -सदा दौड है और परमात्मा सदा मंजिल है। संसार मार्ग है और परमात्मा लक्ष्य है। वह लक्ष्य मौजूद ही है, तुम्हें कहीं जाना भी नहीं। तुम उसी में घिरे बैठे हो। वही तुम्हारे भीतर है और वही तुम्हारे बाहर है। 'तू सबकी उपेक्षा कर, अनादर कर। सर्वत्र! अर्थ, काम और धर्म, इन तीनों का तू अनादर कर। तेरे मन से साधन-मात्र अनादृत हो जाएं। ' ये तीनों साधन हैं। इन तीनों का अनादर हो जाए, तो जो शेष रह जाएगा वही मोक्ष है। 'मित्र, खेत, धन, मकान, स्त्री, भाई आदि संपदा को तूर स्वप्न और इंद्रजाल के समान देख, जो तीन या पांच दिन ही टिकते हैं। ' इस जगत में जो भी हम पकड़ लेते हैं और जिसको भी हम सोचते हैं कि इससे हमें सुख मिलेगा-अष्टावक्र कहते है-वह द्रष्ट-नष्ट है, देखते-देखते ही नष्ट हो जाता है, स्वप्न जैसा है! जब होता है तो सच लगता है; जब खो जाता है तब बड़ी हैरानी होती है। तुमने देखा, स्वप्न का यह स्वभाव देखा! रोज रात देखते हो, रोज सुबह जाग कर पाते हो
SR No.032110
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year
Total Pages407
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy