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________________ मोक्ष का स्वभाव ऐसा है कि तुम उसकी चाह नहीं कर सकते। जिसकी भी तुमने चाह की, वह मोक्ष नहीं रह गया। तुम्हारी चाह अगर पीछे खड़ी है, तो तुम जो भी चाहोगे, वह संसार हो गया। मोक्ष का कोई साधन नहीं है। धर्म भी मोक्ष का साधन नहीं है। यह तो हमारी गणित की दुनिया है। हम कहते हैं, यहां कामवासना पूरी करनी है तो धन कमाओ और अगर मोक्ष पाना है तो धर्म कमाओ। लोग धर्म भी कमाते हैं, जैसा धन कमाते हैं। लोग पुण्य को भी तिजोरी में भरते चले जाते हैं, जैसे सिक्कों को भरते हैं। जैसे खाते-बही बनाते हैं, और बैंक बैलेंस रखते हैं, वैसा ही पुण्य का भी हिसाब रखते हैं। परमात्मा के सामने खोल कर रख देंगे अपनी किताब कि ये-ये, इतने इतने पुण्य किए थे, इनका बदला चाहिए। साधारण आदमी का तर्क यही है कि जीवन में सब कुछ सौदा है, व्यवसाय है। अष्टावक्र कहते हैं. मोक्ष कोई सौदा नहीं, कोई व्यवसाय नहीं; तुम्हारे कुछ करने से न मिलेगा। प्रसादरूप है यह। तुम्हारी चाह से नहीं फिलेगा। तुम्हारी चाह के कारण ही तुम चूक रहे हो। मोक्ष तो मिला ही हुआ है- तुम्हारी चाह के कारण तुम नहीं देख पा रहे चाह ने तुम्हें अंधा किया है। तुम चाहत छोड़ो, तुम चाह छोड़ो। तुम बिना चाह के थोड़ी देर रह कर देखो - अचानक पाओगे, मोक्ष की किरणें तुम्हारे भीतर उतरने लगीं ! तो मोक्ष कोई साध्य नहीं है, जिसका साधन हो सके मोक्ष स्वभाव है। मोक्ष है ही, हम मोक्ष में ही जी रहे हैं। मैंने सुना है, एक मछली बचपन से ही सुनती रही थी सागर की, महासागर की बातें। शास्त्रों में भी मछलियों के महासागर की बातें लिखी हैं। बड़े ज्ञानी थे जो मछलियों में, वे भी महासागर की बातें करते थे। वह मछली बड़ी होने लगी, बड़ी चिंता और विचार में पड़ने लगी कि महासागर है कहां ? अब जब मछली सागर में ही पैदा हुई हो तो सागर का पता नहीं चल सकता। सागर में ही बड़ी हुई तो सागर का पता नहीं चल सकता। वह पूछने लगी कि यह महासागर कहां है? लोगों ने कहा, हमने सुनी हैं ज्ञानियों से बातें, सुनी है वार्ता, देखा तो किसी ने भी नहीं। कुछ धन्यभागी मछलियां, कोई बुद्ध-महावीर, कोई कृष्ण - राम जान लेते होंगे; बाकी साधारण मछलियां, हम तो सिर्फ सुन कर मानते हैं कि है महासागर कहीं । वह बड़ी चिंता में रहने लगी। उसका जीवन बड़ा विक्षुब्ध हो गया। वह बड़ी विचारशील मछली थी। वह भूखी-प्यासी भी पड़ी रहती और सोचती रहती कि कैसे महासागर पहुंचे वह अद्वितीय घटना कैसे घटेगी? महासागर का लोभ उसके मन में समाने लगा। वह सूखने लगी, वह दुर्बल होने लगी । फिर कोई एक अतिथि मछली पड़ोस की नदी से आई थी। उसने उसकी यह हालत देखी। उसने कहा, पागल ! जिसे तू खोजती है, वह चारों तरफ मौजूद है, हम उसी के भीतर हैं। न तो भूखे मरने की जरूरत है, न ध्यान करने की जरूरत है, न जप करने की जरूरत है - महासागर है ही । महासागर के बिना हम हो ही नहीं सकते। जैसा उस मछली को बोध दिया गया, अष्टावक्र जैसे सदगुरु हमें भी यही कह रहे हैं कि हम
SR No.032110
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year
Total Pages407
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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