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________________ साधारणत: अर्थ और काम को छोड़ने को सभी ने कहा है। अष्टावक्र कहते हैं. 'धर्म को भी छोड़ कर। ' इस बात को ठीक से समझ लेना जरूरी है। धर्म की आत्यंतिक क्राति धर्म को भी छोड़ने पर ही घटित होती है। धर्म का आत्यंतिक लक्ष्य धर्म से भी मुक्त हो जाना है। अधर्म से अर्थ है. जो बुरा है, अकर्तव्य है। धर्म से अर्थ है. जो शुभ है, कर्तव्य है। अधर्म से अर्थ है : पाप। धर्म से अर्थ है : पुण्य। पाप से तो छूटना ही है, अष्टावक्र कहते हैं, पुण्य से भी छूट जाना है। क्योंकि मूलत पाप और पुण्य अलग- अलग नहीं हैं, एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। और जो व्यक्ति पुण्य से बंधा है वह पाप से भी बंधा रहेगा। पुण्य करने के लिए भी पाप करने होंगे। बिना पाप किए पुण्य नहीं किए जा सकते हैं। तुम्हें दान देना हो, तो धन तो इकट्ठा करोगे न! धन इकट्ठा करने में पाप होगा, दान देने में पुण्य होगा। लेकिन धन इकट्ठा किए बिना कैसे दान करोगे? ऐसा उल्लेख है कि लाओत्सु का एक शिष्य न्यायाधीश हो गया था। मुकदमा चला एक आदमी चोरी में पकड़ा गया। गांव के सबसे बड़े नगरसेठ के घर में उसने डाका डाला था, सेंध लगाई थी। पकड़ा गया था रंगे हाथों, इसलिए कुछ उलझन भी न थी। लाओत्सु के शिष्य न्यायाधीश ने छह महीने की सजा चोर को दी और बारह महीने की सजा नगरसेठ को दी। नगरसेठ तो हंसने लगा। उसने कहा ऐसा न्याय कभी सुना है? यह क्या पागलपन है? सम्राट के पास बात गई कि यह तो हद हो गई, मेरी चोरी हो और फिर मुझे दंड दिया जाए! लेकिन उस न्यायाधीश ने सम्राट को कहा. न यह इतना इकट्ठा करता, न चोरी होती। चोरी नंबर दो है, इकट्ठा करना नंबर एक है। इसलिए छह महीने की सजा देता हूं चोर को साल की सजा देता हूं इस आदमी को बात तो सम्राट को भी जंची, लेकिन नियम ऐसे नहीं चल सकते। सम्राट ने कहा बात में तो बल है, लेकिन ऐसा कभी हुआ नहीं। और इस आधार पर तो मैं भी अपराधी हो जाऊंगा। तुम नौकरी से इस्तीफा दे दो। तुम्हारी बात कितनी ही ठीक हो, व्यावहारिक नहीं है। व्यवहार के नाम पर आदमी बहुत-सी बातें छिपाए चला जाता है। सत्य प्रगट नहीं हो पाता, क्योंकि हम व्यवहार की आड़ में छिपा लेते हैं। मनुष्य-जाति के इतिहास में यह एक ही घटना है, जबकि चोर को भी दंड दिया गया, और जिसके घर चोरी हुई थी उसको भी दंड दिया गया। और इस घटना में बड़ा राज है। चोरी हो ही तब सकती है जब कोई धन को इकट्ठा कर ले। तो धन को इकट्ठा करना तो पुण्य के लिए भी जरूरी होगा। तभी तो त्याग करोगे। तुम देखते हो, अगर कोई गरीब आदमी, कोई भिखमंगा घोषणा कर दे कि मैं सब त्याग करता हूं तो लोग हंसेंगे। लोग कहेंगे तुम्हारे पास है क्या? त्याग तुम किस बात का करते हो?
SR No.032110
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year
Total Pages407
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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