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________________ इसलिए दुनिया में ज्ञानी तो बहुत होते हैं, सदगुरु बहुत नहीं। सदगुरु का अर्थ है: जिसने जाना और जो ऐसी कुशलता से कह देता है कि सत्य का कुछ अंश तो पहुंच ही जाए तुम तक। शिष्य तक कुछ पहुंच जाए, ऐसी कुशलता का नाम सदगुरु है। ज्ञानी तो बहुत होते हैं। बुद्ध को किसी ने पूछा है एक दिन कि ये दस हजर भिक्षु हैं तुम्हारे, वर्षों से तुम्हारे साथ हैं, जीवन अर्पित किया है, साधना की है, साधना में लगे हैं, इनमें से कितने बुद्धत्व को उपलब्ध हुए बुद्ध ने कहा : इनमें से बहुत उपलब्ध हुए हैं बहुत उपलब्ध हो रहे हैं, बहुत उपलब्ध होने के मार्ग पर हैं। कुछ चल पड़े हैं, कुछ पहुंचने के करीब हैं कुछ पहुंच भी गए हैं। पूछने वाले ने कहा, इस पर भरोसा नहीं आता, क्योंकि इनमें से आप जैसा तो कोई भी नहीं दिखता। बुद्ध हंसने लगे। उन्होंने कहा : यह सच है। बुद्ध होने से ही कोई दिखाई नहीं पड़ता, जब तक कि बुद्धत्व को अभिव्यक्ति न दे; जब तक कि बुद्धत्व को बोले न; जब तक कि बुद्धत्व को गुनगुनाए नहीं, गीत न बनाए; जब तक कि बुद्धत्व को बांधे नहीं छंद और मात्रा में; जब तक कि बुद्धत्व को दूसरे तक पहुंचाए नहीं। जब तक बुद्धत्व सवांदित न हो तब तक पता कैसे चले? और जब तक मैं जीवित हूं तब तक ये बोलेंगे भी नहीं। क्योंकि ये कहते हैं, जब आप मौजूद हैं तो हम बोलें क्या? आपकी मौजूदगी में क्या बोलें? इनमें बहुत पहुंच गए हैं। बहुत तो बोलेंगे भी नहीं क्योंकि बोलना एक अलग कुशलता है। पा लेना एक बात है, बोलना बड़ी दूसरी बात है। पा लेने वाले को जैनशास्त्र कहते हैं : केवली जिन। और बता देने वाले को जैनशास्त्र कहते हैं : तीर्थंकर। हजारों 'केवली' होते हैं, तब कहीं एकाध तीर्थंकर होता है। तीर्थंकर का अर्थ है : जो खुद ही पार नहीं हुआ बल्कि जिसने घाट बनाया, नाव बनाई, औरों को भी बिठाया नाव में, घाट से उतारा और चलाया। तीर्थ यानी घाट। तीर्थंकर यानी घाट को बनाने वाला; खुद तैर कर तो बहुत लोग पार हो जाते हैं लेकिन दूसरों को नाव पर ले जाने वाला। पर ध्यान रखना, जैसे ही-बड़े से बड़ा तीर्थंकर हो, बड़ा से बड़ा सदगुरु हो-जैसे ही शब्द देता अनुभव को, अनुभव झूठ होने लगता है। उसमें से कुछ तो तत्क्षण मरने लगता है; अंश ही पहुंचता है। फिर पहुंचने वाले पर निर्भर है कितना पहुंचेगा। पहले तो बोलने वाले पर निर्भर है कितना भर पाएगा फिर सुनने वाले पर निर्भर है कितना खोल पाएगा! तो सभी सुन रहे हो तुम, लेकिन सभी उतना ही न खोल पाओगे, एक जैसा न खोल पाओगे। कोई बहुत खोल लेगा कोई तुम्हारे पास में ही बैठा हुआ गदगद हो जाएगा और तुम चौंकोगे कि क्या यह आदमी पागल है! उसने कुछ तुमसे ज्यादा खोल लिया। उसके हृदय तक बात पहुंच गई। तुम्हारे शायद सिर में ही गूंजती रह गई। शायद तुम शब्दों का ही हिसाब बिठाते रहे। उस तक मर्म पहुंच गया। फिर तुम पर निर्भर है कि कितना तुम खोलोगे। लेकिन फिर कुछ सत्य मरेगा तुम्हारे खोलने में। जो बांधा गया है शब्दों में, वह शब्दातीत है। फिर शब्द से तुम्हें शब्दातीत को छांटना होगा; शब्द से फिर तुम्हें अर्थ को अलग करना होगा, फिर शब्द की परिधि तोड़नी होगी, सीमा तोड़नी होगी, असीम को फिर मुका करना होगा।
SR No.032110
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year
Total Pages407
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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