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________________ बुद्धि जागी नहीं, नहीं तो उदास होने को भी यहां कुछ नहीं है। यहां प्रफुल्लित होने को भी कुछ नहीं है, उदास होने को भी कुछ नहीं है। न यहां पाना है न देना है। हानि-लाभ न कछु! अगर लाभ हो सकता हो तो तुम प्रफुल्लित हो जाते हो, अगर हानि होने लगे तो उदास हो जाते हो; लेकिन यहां तो न हानि है न लाभ। इसलिए उदासीन का उदास शब्द से कोई अर्थ नहीं; भला भाषा-शास्त्र कुछ भी कहते हों, मुझे उसका प्रयोजन नहीं है। मैं तुम्हें कुछ आत्म शास्त्र की बात कह रहा हूं, भाषा-शास्त्री मैं हूं भी नहीं। उदासीन का अर्थ है. अपने भीतर जो आसीन; उद- आसीन। जो अपने भीतर बैठ गया! जो अपने अंतरतम में बैठ गया! और वहां से देखने लगा लीला, वहां साक्षी हो गया। और सारा जगत बाहर का, भीतर का सब दृश्य-मात्र, नाटक हो गया। जो ठीक से जान लेता है-अष्टावक्र कहते है-वह उदासीन हो जाता है। वह फिर यह भी नहीं कहता कि मुझे शांत होना है। वह कहता है न मैं शांत हो सकता हूं न अशांत मैं तो द्रष्टा हूं। यह शांत और अशांत होने की बात भी मन के साथ तादात्म्य के कारण है। वह यह भी नहीं कहता कि मुझे सुखी होना है, क्योंकि यह सुखी होना और दुखी होना, साथ-साथ चलने वाला है। जो सुखी होना चाहता है, वह दुखी भी होगा। दोनों पंख चाहिए उड़ने के लिए। तुम अकेले सुखी होना चाहते हो तुम व्यर्थ की आकांक्षा कर रहे हो, जो कभी सफल नहीं हो सकती। जितने तुम सुखी होना चाहोगे, उतने दुखी हो जाओगे। जिसने जान लिया, वह तो कहता है : अब मुझे न सुखी होना, न दुखी; न शांत, न अशांत। लोग आते हैं मेरे पास। वे कहते हैं, ध्यान हमें सीखना- है, क्योंकि हम शांत होना चाहते हैं। उन्हें ध्यान का अर्थ भी पता नहीं है। ध्यान का अर्थ होता है. ऐसी भीतर की अवस्था, जहां न शांति है न अशांति। वहीं शांति है-जहां शांति भी नहीं। क्योंकि जहां तक शांति है, वहां तक अशांत होने का उपाय है। तुम बैठे हो तो तुमने देखा होगा, कभी-कभी घर में कोई आदमी ध्यान में उत्सुक हो जाता है तो वह शांत हो कर बैठा है। किसी बच्चे ने किलकारी मार दी, वह अशांत हो गया। यह भी कोई शांति हुई? कि आप बड़े ध्यान-मंदिर में बैठे हैं, ध्यान कर रहे हैं और पत्नी ने एक प्याली गिरा दी और ऐसे मौके पर पत्नी जरूर गिरा देगी और आप बौखला गए कि अशांति हो गई कि पड़ोसी ने रेडियो चला दिया और आप अशांत हो गए; कि पड़ोसी के यहां बड़े अधार्मिक हैं, पापी हैं, नर्क जाएंगे, ध्यान भ्रष्ट कर दिया! जो भ्रष्ट हो जाए, वह ध्यान नहीं। जिससे तुम डांवाडोल हो जाओ वह ध्यान नहीं। प्यालियों के टूटने से, रेडियो के चल पड़ने से, बच्चे के हंसने से जो बिखर जाता हो, वह है ही नहीं। तुम किसी तरह अपने को सम्हाल-सम्हाल कर बैठे थे, मगर वह सम्हाल कर बैठा होना सिर्फ नियंत्रण था, कोई गहरा अनुभव नहीं था। थे तो तुम बिलकुल करीब सतह के शायद सिर डुबा लिया था; लेकिन थे बिलकुल सतह के करीब। जरा-सी चोट बाहर से आयी कि तुम अस्तव्यस्त हो गये।
SR No.032110
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year
Total Pages407
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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