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________________ कि वह कठिन है? बड़ा मकान बनाना कठिन है। बड़ी कार खरीद लाना कठिन है। बड़ा धन - अंबार लगा लेना कठिन है। कहीं तुम इसलिए तो पीछे नहीं लगे हो ? खाओगे, पीयोगे, ओढोगे - क्या करोगे उस धन के अंबार का? लेकिन आदमी धन का ढेर लगाता जाता है। क्यों? पूछो उससे । शायद बहुत कठिन था, इसलिए चुनौती थी। कुछ दिखला कर- मैं भी कुछ हूं - दुनिया को बतला देने का मजा था। जो बिलकुल सरल है, उसमें तो किसी को रस नहीं आता । सिकंदर सारी दुनिया जीतना चाहता था। डायोजनीज ने उससे कहा, क्या करोगे सारी दुनिया को जीतने के बाद? सिकंदर ने कहा, क्या करेंगे? फिर विश्राम करेंगे ! डायोजनीज खूब हंसने लगा। उसने कहा, अगर विश्राम ही करना है तो हम अभी विश्राम कर रहे हैं, तो तुम भी करो। सारी दुनिया जीत कर विश्राम करोगे, यह बात कुछ समझ में नहीं आई। इसमें तर्क क्या है? क्योंकि सारी दुनिया के जीतने का विश्राम से कोई भी तो संबंध नहीं है। विश्राम मैं बिना कुछ जी कर रहा हूं । जरा मेरी तरफ देखो ! और वह कर ही रहा था विश्राम। वह नदी - तट पर नग्न लेटा था। सुबह की सूरज की किरणें उसे नहला रही थीं। मस्त बैठा था। मस्त लेटा था। कहीं कुछ करने को न था, विश्राम में था। तो वह खूब हंसने लगा। उसने कहा, सिकंदर तुम पागल हो! तुम जरा मुझे कहो तो, कि अगर विश्राम दुनिया को जीतने के बाद हो सकता है, तो डायोजनीज कैसे विश्राम कर रहा है? मैं कैसे विश्राम कर रहा हूं? मैंने तो कुछ जीता नहीं। मेरे पास तो कुछ भी नहीं है। मेरे हाथ में एक भिक्षा पात्र हुआ करता था, वह भी मैंने छोड़ दिया। वह इस कुत्ते की दोस्ती के कारण छोड़ दिया। कुत्ता उसके पास बैठा था। डायोजनीज का नाम ही हो गया था यूनान में : 'डायोजनीज कुत्ते वाला'। वह कुत्ता सदा उसके साथ रहता था। उसने आदमियों से दोस्ती छोड़ दी। उसने कहा, आदमी कुत्तों से गए-बीते हैं। उसने एक कुत्ते से दोस्ती कर ली। और उसने कहा, इस कुत्ते से मुझे एक शिक्षा मिली, इसलिए मैंने पात्र भी छोड़ दिया, पहले एक भिक्षा पात्र रखता था । एक दिन मैंने इस कुत्ते को नदी में पानी पीते देखा। मैंने कहा, ' अरे, यह बिना पात्र के पानी पी रहा है! मुझे पात्र की जरूरत पड़ती है!' वहीं मैंने छोड़ दिया। इस कुत्ते ने मुझे हरा दिया। मैंने कहा, यह हमसे आगे पहुंचा हुआ है? मुझे पात्र की जरूरत पड़ती है? क्या जरूरत? जब कुत्ता पी लेता है पानी और कुत्ता भोजन कर लेता.। तो मेरे पास कुछ भी नहीं है, फिर भी मैं विश्राम कर रहा हूं। और क्या तुम संदेह कर सकते हो मेरे विश्राम पर ? नहीं, सिकंदर भी संदेह न कर सका। वह आदमी सच कह रहा था। वह निश्चित ही विश्राम में था। उसकी 'आंखें, उसका सारा भाव, उसके चेहरे की विभा वह ऐसा था जैसे दुनिया में कुछ पाने को बचा नहीं, सब पा लिया है। कुछ खोने को नहीं, कोई भय नहीं, कोई प्रलोभन नहीं। सिकंदर ने कहा, तुमसे मुझे ईर्ष्या होती है। चाहता मैं भी हूं ऐसा ही विश्राम, लेकिन अभी न कर सकूंगा। दुनिया तो जीतनी ही पड़ेगी। मैं यह तो बात मान ही नहीं सकता कि सिकंदर बना दुनिया को जीते मर गया ।
SR No.032110
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year
Total Pages407
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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