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________________ धड़क रहे हैं, चांद-तारे भी धड़क रहे हैं। तब तुम्हारी धड़कन के साथ सारा जगत एक लयबद्ध, एक छंदोबद्ध गति में आ जाता है-एक गीत, एक संगीत-जिसमें तुम अलग नहीं हो; एक विराट आर्केस्ट्रा के हिस्से हो गए हो! कोयल की तरह मेरा चंचल मन मचलेगा जब आम के पेड़ों पर हरसूं कू-कू होगी। यह किसी बाहर की कोयल की बात नहीं है और यह किसी बाहर के आमों की बात नहीं है। भीतर भी वसंत आता है। भीतर की कोयल भी कू-कू करती है। उस घटना के करीब है हेमा। अगर चलती रही और इस बात को सुन कर कि मुझे समाधि की पहली प्रतीति हुई है अकड़ न गई..। क्योंकि उस अकड़ में ही मर जाता सब। इसलिए पहली दफा वर्षों पहले जब उसे आबू में हुआ था मैंने कुछ कहा नहीं, मैं चुप ही रहा। अब कहता हूं लेकिन फिर भी खतरा तो सदा है। अब इस बात को बहुत अहंकार का हिस्सा मत बना लेना। नहीं तो जो हुआ है वह वहीं अटक जाएगा। जहां अहंकार आया वहीं गति अवरुद्ध हो जाती है। ऐसा हुआ है तो यह मत सोचना कि मेरे किए हुआ है। ऐसा सोचना प्रभु का प्रसाद है! ऐसा सोचना कि कृतज्ञ उसकी, उसका आशीष है! ऐसा सोचना कि मैं अपात्र, कैसे यह हो पाया! आश्चर्य! अहो! अहोभाव का इतना ही अर्थ है कि भीतर अहो का भाव उठता रहे, कि अहो, मुझे होना नहीं था और हुआ मैं पात्र नहीं थी, और ह आ अपात्र थी, और हुआ। उसकी 'अनुकंपा अपार है! आखिरी प्रश्न : गर जाम नहीं है हाथों में, आंखों से पिला दे, काफी है। अब जीने की है फिक्र किसे, तू मुझे मिटा दे, काफी है। अब डोर तेरे ही हाथों में, जी भर के नचा दे, काफी है। ना होश रहे बाकी, ऐसापागल ही बना दे, काफी है। अब अमृत की है चाह किसे, तू जहर पिला दे, काफी है।
SR No.032110
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year
Total Pages407
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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