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________________ पूछा है उसने. 'आबू में जो अनुभव हुआ था वह अब प्रगाढ़ हो गया है। सतत आन्द का भाव बना रहता है, जीवन धन्य हो गया है प्रभु । जो अनुभव में आया उसे कह नहीं पाती । अहोभाव के सागर में तैर रही हूं । ' अब हंसी खो गई है। वह उद्वेग चला गया। क्योंकि वह उद्वेग तो प्राथमिक क्षण में ही होता है। फिर तो हंसी धीरे- धीरे रोएं - रोएं में समा गई है। अब वह प्रफुल्लित है, आनंदित है। एक स्मित है व्यक्तित्व में। अब रस सिर्फ ओंठों में नहीं है। जब पहली दफे घटता है तो हंसी बड़ी प्रगाढ़ होती है, फिर धीरे- धीरे हंसी संतुलित हो जाती है, धीरे- धीरे व्यक्तित्व में समा जाती है। एक सहज अहोभाव और एक आनंद का भाव निर्मित हो जाता निश्चित ही जो अनुभव में आया है, वह कहती है, उसे कहा नहीं जा सकता। कोई उसे कभी नहीं कह पाया है। जितना ज्यादा अनुभव में आता है उतना ही कहना मुश्किल हो जाता है। बाहर वह खोया पाया मैला उजला दिन - दिन होता जाता वयस्क दिन-दिन धुंधलाती आंखों से सुस्पष्ट देखता जाता था पहचान रहा था रूप पा रहा वाणी और बूझता शब्द पर दिन-दिन अधिकाधिक हकलाता था दिन-पर-दिन उसकी घिग्घी बंधती जाती थी धुंध से ढंकी हुई कितनी गहरी वापिका तुम्हारी कितनी लघु अंजुलि हमारी! हाथ हमारे छोटे हैं। प्रभु का आनंद - लोक बहुत बड़ा है। धुंध से ढंकी हुई कितनी गहरी वापिका तुम्हारी कितनी लघु अंजुलि हमारी ! जितना ही कोई जानता है, उतना ही हकलाता है। जितना ही कोई जानता है, उतनी ही घिग्घी बंधती जाती है। कहने को मुश्किल होने लगता है। जो कहना है वह तो कहा नहीं जा सकता। उसके आसपास ही प्रयास चलता है। तो ठीक, 'जो अनुभव में आया उसे कह नहीं पाती। अहोभाव के सागर में तैर रही हूं ।' उसे कहने की फिक्र भी मत करना। अन्यथा उस चेष्टा से भी तनाव पैदा होगा। समाधि बहुत लोगों को घटती है, बहुत थोड़े से लोग उसे कहने में थोड़े - बहुत समर्थ हो पाते HT से वह नहीं होगा। उस चेष्टा में पड़ेगी तो उसके भीतर जो घट रहा है उसमें अवरोध आ जाएगा, बाधा आ जाएगी। कहने की फिक्र ही मत करो। अगर बहुत कहने का मन होने लगे और होगा
SR No.032110
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year
Total Pages407
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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