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________________ जाता है। जब पहली दफा देखता है पैर कंपता है चलने में, हाथ थर्राता है-बड़ा घबड़ा जाता है। उतार आ गया! और हम तो सोचते थे, सदा जवान रहेंगे। और हम तो सोचते थे, सदा जीएंगे। यह तो उतार आ गया! अब मौत भी ज्यादा दूर न होगी। यह तो मौत का संदेशवाहक आ गया। बुढ़ापे को -हम इंकार करते हैं, क्योंकि हम मौत को इंकार करना चाहते हैं। बुढ़ापा तो सीडी है मौत की तरफ। लेकिन ध्यान रखना, जो बुढ़ापे को इंकार करता है, मृत्यु को इंकार करता है, वह जीवन को भी स्वीकार नहीं कर पाता। क्योंकि जीवन में ही तो ये घटनाएं घटती हैं-बुढ़ापा और मृत्यु। ये जीवन के ही तो अंतिम चरण हैं। यह जीवन का ही तो आखिरी चरण, आखिरी अभिव्यक्ति है। यह आखिरी स्थिति है। यह जीवन का ही तो अंतिम उदघोष है-मृत्यु। यह जीवन का तार जो अंतिम स्वर बजाता है, वह मृत्यु का है। तो फिर जीवन को भी तुम प्रेम नहीं कर पाते। 'नीचे आते कार को देखता हूं तब भी नियंत्रण जाता रहता है।' असल में जब भी कोई चीज नीचे आती है, तभी तुम्हें पता चलता है कि अपने नियंत्रण में सब कुछ नहीं है। जब तक चीजें ठीक चलती हैं, पत्नी झगड़ती नहीं, बच्चे ठीक से स्कूल में पढ़ते हैं, धंधा, दुकान कमाई में चलती है तब तक सब ठीक है। तब तक तुम्हें पता नहीं चलता कि तुम असहाय हो। फिर अचानक देखा कि दुकान टूटी, दिवाला निकल गया। जब तक दीवाली, तब तक ठीक; जब दिवाला, तब घबडाए कि यह अपने बस के बाहर हुई जा रही है बात। मैं तो सोचता था, सब अपने बस में है, और दीवाली ही दीवाली रहेगी। यह 'दिवाला' शब्द बड़ा बढ़िया है। अब दीवाली बिना दिवाले के हो कैसे सकती है? दीवाली तो स्त्री है, दिवाला तो पति है। यह तो पूरा जोड़ा ही है। तुम सोचते थे सिर्फ दीवाली से गुजार लें, मगर जब पत्नी आ गई तो पति भी आ रहा है पीछे से। देर-अबेर आ ही जाएगा। पत्नी ठीक है, कोई झगड़ा-झांसा नहीं, सब ठीक चल रहा है तो तुम सोचते हो बिलकुल तरंग उठ रही है, जीवन बड़ी प्रसन्नता से भरा है, अहंकार मजबूत है। जरा-सा पत्नी कलह कर देती है, जरा-सा उपद्रव खड़ाहो जाता है कि बस क्षण भर में तुम्हारा सब संगीत खो जाता है, सब लय विच्छिन्न हो जाती है। तत्क्षण तुम्हें पता चलता है. अरे, यह नाव डूबने वाली है! तुमने कभी खयाल किया, जरा-सा झगड़ा हो जाए पत्नी से, तुम सोच लेते हो. कहां पड़ गए इसकी झंझट में, क्यों विवाह किया, यह मर ही जाए तो बेहतर, या कहीं छूट निकलें तो अच्छा! अभी क्षण भर पहले सब ठीक चल रहा था, तब अहंकार तरंगें ले रहा था। अहंकार बड़ा घबड़ाता है पराजय से, उतार से। लेकिन उतार ही मनुष्य को परमात्मा की तरफ लाती है। दीवाला ही परमात्मा की तरफ लाता है। अगर तुम जीतते ही चले जाओ तो तुम कभी धार्मिक बनोगे ही नहीं। तुम्हारी जीत में वस्तुत तुम्हारी नियति की हार है। और जब तुम हारते हो तब पहली दफे तुम्हें अपनी असली स्थिति का पता चलता है : हम इस विराट में एक छोटी-सी तरंग हैं, एक बूंद हैं सागर में। हमारी जीत क्या, हमारी हार क्या! जीत है तो उसकी, हार है तो उसकी। 'लेकिन एक बात सदा महसूस होती है कि यदयपि मैं ड्राइवर होता हूं तो भी मेरा पैर ऐक्सीलरेटर
SR No.032110
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year
Total Pages407
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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