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________________ तो हजार मौके आएंगे जीवन में, जब तुम अचानक पाओगे कार पीछे की तरफ सरकने लगी। और जब भी ऐसे मौके आएंगे, तुम रोकने की कोशिश करोगे; क्योंकि यह तो तुम्हारे अहंकार के बिलकुल विपरीत हो रहा है। यह तो तुम्हारे संकल्प के विपरीत हो रहा है। यह तो तुम्हारी हार हुई जाती, यह तो तुम पराजित होने लगे, यह तो विफलता आ गई। 'और मैं रोकने की कोशिश करता हूं लेकिन नमैं गियर सम्हाल पाता हूं न ब्रेक और न स्टीयरिंग। 'यह मेरे पास रहने का परिणाम है अजित सरस्वती! अब यह संभलेगा नहीं। अब न तो तुम गियर सम्हाल पाओगे, न ब्रेक सम्हाल पाओगे, न स्टीयरिंग। क्योंकि मेरा सारा प्रयोजन तुम्हें समझाने का इतना ही है कि जीवन के साथ एकरस हो जाओ। जहां जीवन ले जाए वहीं चलो, वहीं मंजिल है। तो अब तुम सपने में भी न रोक पाओगे, यह शुभ है। रोक लेते तो दुर्घटना थी। यह शुभ है कि अब सपने में भी तुम रोक नहीं पाते। तुम्हारा नियंत्रण खो रहा है। तुम्हारा नियंत्रण खो रहा है अर्थात तुम्हारा अहंकार खो रहा है, क्योंकि अहंकार नियंता है। जैसे ही तुमने अहंकार छोड़ा, परमात्मा नियंता है, फिर तुम नियंता नहीं हो। जब तक तुम्हारा अहंकार है, तुम नियंता हो, तब तक परमात्मा इत्यादि की तुम कितनी ही बातें करो, लेकिन परमात्मा से तुम्हारा कोई संबंध नहीं बन सकता। तुम हो, तो परमात्मा नहीं है। अच्छा हो रहा है कि अब न गियर सम्हलता, न ब्रेक लगता, न स्टीयरिंग पर पकड़ रह गई है। ' असहाय हो कर दुर्घटना के किनारे पहुंच जाता हूं।' वह दुर्घटना जैसी लगती है, क्योंकि तुम ऊपर जाना चाहते थे। खयाल रखना, कौन-सी बात दुर्घटना है? घटना पर निर्भर नहीं होता, तुम्हारी व्याख्या पर निर्भर होता है। तुम जो करना चाहते थे उसके विपरीत हो जाए तो दुर्घटना है। तुम जो करना चाहते थे उसके अनुकूल हो जाए तो सौभाग्य, फिर दुर्घटना नहीं है। तुम्हारे ऊपर निर्भर है। तो वह जो अहंकार की छोटी-सी बची हुई कहीं छिपी कोने में पड़ी हुई आशा है, वह तत्क्षण कहती है, यह तो दुर्घटना हुई जा रही है! नियंत्रण खोए दे रहे हो! यह तो कार तुम्हारी तुम्हारे हाथ के बाहर हुई जा रही है। 'असहाय हो कर दुर्घटना के किनारे पहुंच जाता हूं। तुम नहीं चाहते और पहुंच जाते हो इसलिए असहाय अवस्था मालूम होती है। अगर तुम चाहने लगो तो जिसे तुम असहाय कह रहे हो, वह असहाय न रह जाएगी। उसी अवस्था में तुम पाओगे, जहां तुमने अपना सब आधार छोड़ा, वहीं, जहां तुम निराधार हुए वहीं परमात्मा का आधार मिला। तब तुम अचानक पाओगे, पहली दफा आसरा मिला। अब तक असहाय थे, क्योंकि अपने सिवाय अपना कोई सहारा नहीं था। वह भी कोई सहारा था? तिनकों को पकड़े थे और सागर में तैरने की सोचते थे। कागज की नाव में बैठे थे। अब पहली दफा तुम पाओगे कि बेसहारा हो कर सहारा मिला। हारे को हरिनाम! जैसे ही आदमी पूर्ण रूप से हार जाता है, हरिनाम का उदघोष होता है। निर्बल के बल राम! जब तुम बिलकुल निर्बल सिद्ध हो जाते हो, सब तरह से असहाय, उसी क्षण तुम्हें प्रभु का सहारा मिलना
SR No.032110
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year
Total Pages407
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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