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________________ बन जाना चाहता है। इसे समझ और अब तू चुनाव छोड़ दे। मैं तुझसे कहता हूं? तू क्रोधी है, तू राजी हो जा. ठीक है, मैं क्रोधी हूं। और क्रोध के जो परिणाम हैं वे होंगे। कोई तुझे सम्मान नहीं देगा, ठीक है, बिलकुल ठीक है। सम्मान देना ही क्यों चाहिए। कोई तेरा अपमान करेगा, ठीक है। क्रोधी हूं इसलिए अपमान होता है। समझने की कोशिश करना। अगर यह व्यक्ति क्रोध को समझ ले, स्वीकार कर ले तो क्या क्रोध बचेगा? उस व्यक्ति ने दो दिन पहले मुझे पत्र लिखा था कि मुझे अब बचाएं, मुझे बाहर निकालें क्योंकि मैं वेश्या के घर जाने लगा हूं और ये और लोग मुझे संत मानते हैं साधु मानते हैं। और अगर मैं पकड़ा गया या किसी को पता चल गया तो फिर क्या होगा? देखते हैं, वही अहंकार नए-नए रूप लेगा! वही अहंकार वेश्या के घर ले जाएगा। वही अहंकार संत बनने की आकांक्षा पैदा करवा देगा। उस व्यक्ति को मैंने कहा, तू एक काम कर। या तो तू स्वीकार कर ले कि तू वेश्यागामी है और घोषणा कर दे कि मैं वेश्यागामी हूं। बात खत्म हो गई। फिर न तुझे डर रहेगा न भय रहा, फिर तुझे जाना है जा, नहीं जाना है न जा। तेरी मर्जी है। तेरे लिए शायद अभी यही उचित होगा. जो हो रहा है ठीक हो रहा है। मैं तुझे नहीं कहता कि मत जा। अगर इस स्वीकार- भाव से यह गिर जाए वृत्ति तो ठीक, तो तू जाग जाएगा। तब जागरण को स्वीकार कर लेना, अभी सोने को स्वीकार कर। और स्वीकार के माध्यम से ही सोने और जागरण के बीच सेतु बनता है। क्या किया उस व्यक्ति ने? वह चीखा, मेरे सामने ही चिल्लाया कि मुझे बुद्ध बनने से कोई भी नहीं रोक सकता! इतने जोर से चीखा कि शीला मेरे पास बैठी थी, वह एकदम कैप गई। वही क्रोध, वही अहंकार नए-नए रूप ले लेता है। अब बुद्ध बनने से कोई नहीं रोक सकता! जैसे कि मैं उसको बुद्ध बनने से रोक रहा हूं क्योंकि मैंने उससे कहा, स्वीकार कर ले। जो हो रहा है, स्वीकार कर ले! जैसा है स्वीकार कर ले। यह बात चोट कर गई। यह कैसे स्वीकार कर लें! बुरा से बुरा आदमी भी यह स्वीकार नहीं करता कि मैं बुरा हूं। इतना ही मानता है कि कुछ बुराई मुझमें है हूं तो मैं आदमी अच्छा| देखो, अच्छा होने की कोशिश में लगा हूं। पूजा करता प्रार्थना करता, ध्यान करता, साधु -सत्संग में । जाता-आदमी तो मैं अच्छा हूं; जरा कमजोरी है, थोड़ी- थोड़ी बुराई कभी हो जाती है, मिट जाएगी धीरे- धीरे! कभी नहीं मिटेगी। क्योंकि यह अच्छाई तुम्हारी बुराई को छिपाने का उपाय भर है। यह साधु-सत्संग, तुम्हारे भीतर जो क्रोध पड़ा है, उसके लिए आइ है। ये अच्छी-अच्छी बातें और ये अच्छीअच्छी कल्पनाएं कि कभी तो संत हो जाऊंगा, बुद्ध बनने से कोई भी मुझे रोक नहीं सकता-यह अहंकार अब बड़ी अच्छी आडू ले रहा है; बड़े सुंदर पर्दे में छिप रहा है-बुद्ध होने का पर्दा! अगर मन को तुम ठीक से देखोगे तो जनक की बात का महत्व समझ में आएगा। स्वीकार
SR No.032110
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year
Total Pages407
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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