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________________ तेरे हुस्ने - जवाब से आई मेरे ली सवाल की खुशबू । जरूर जनक के जवाब में अपने सवाल की आत्यंतिक सुगंध को अष्टावक्र ने अनुभव किया होगा। इधर भीतर तो वह प्रफुल्लित हो रहे होंगे, लेकिन बाहर उन्होंने रुख बड़े कठोर बना रखा है। बाहर तो परीक्षक हैं। बाहर तो आंखें जांच रही हैं। पैनी धार आंखों की जनक के हृदय को काट रही है। गुरु को कठोर होना ही चाहिए - यही उसकी करुणा है। वह तो आत्यंतिक स्थिति में ही कहेगा कि ठीक, उसके पहले नहीं। जब तक जरा-सी भी संभावना है भूल- भटक की, तब तक वह कुरेदे जाएगा, तब तक वह काटे जाएगा, तब तक वह और उपाय करेगा कि तुम फंस जाओ, और उपाय करेगा कि कहीं तुमसे भूल-चूक हो जाए। जनक ने कहा 'मुझ अंतहीन महासमुद्र में, विश्व - रूपी नाव अपनी ही प्रकृत वायु डोलती है। मुझे असहिष्णुता नहीं है। ' इधर-उधर यह सूत्र इतना सरल मालूम होता है, लेकिन बड़ा गहन है ! इसमें उतरने की कोशिश करो। खूब ध्यान से सुनोगे तो ही उतर सकोगे। इस सूत्र का यह अर्थ हुआ कि दुख आए चाहे सुख दोनों ही प्रकृति से उत्पन्न हो रहे हैं। मेरे चुनाव की सुविधा कहां है मुझसे पूछता कौन है! जैसे समुद्र में लहरें उठ रही हैं-छोटी लहरें, बड़ी लहरें, अच्छी लहरें, बुरी लहरें सुंदर, कुरूप लहरें - यह समुद्र का स्वभाव है कि ये लहरें उठती हैं। ऐसे ही मुझ में लहरें उठती हैं- सुख की, दुख की; प्रेम की, घृणा की; क्रोध की, करुणा की। ये स्वभाव से ही उठती हैं और इधर-उधर डोलती हैं। इसमें मैंने चुनाव नहीं किया है, चुनाव छोड़ दिया है। और जब से चुनाव छोड़ा तभी से असहिष्णुता भी चली गई । करने को ही कुछ नहीं है तो असहिष्णुता कैसे हो? मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं कि किसी तरह अशांति के बाहर निकाल लें। मैं उनसे कहता हूं तुम 'अशांति को स्वीकार कर लो। एकदम उन्हें समझ में नहीं आता, क्योंकि वे आए हैं अशांति को छोड़ने। मैं उनसे कहता हूं, अशांति को स्वीकार कर लो। उनके आने का कारण बिलकुल भिन्न है। वे चाहते हैं कि कोई अशांति से छुड़ा दे। कोई विधि होगी, कोई उपाय होगा, कोई औषधि होगी, कोई मंत्र-तंत्र, कुछ यज्ञ-हवन - कुछ होगा, जिससे अशांति छूट जाएगी। और दुनिया में सौ गुरुओं में निन्यानबे ऐसे हैं कि तुम जाओगे तो वे जरूर तुम्हें कुछ कह देंगे कि यह करो तो अशांति छूट जाएगी। मेरी अड़चन यह है कि मैं जानता हूं अशांति को छोड़ने का कोई उपाय ही नहीं है - स्वीकार करने का उपाय है। और स्वीकार करने में अशांति विसर्जित हो जाती है। मैं जब कहता हूं अशांति विसर्जित हो जाती है तो तुम यह मत समझना कि अशांति छूट जाती है। अशांति होती रहे या न होती रहे, तुम अशांति से छूट जाते हो। तुमसे अशांति छूटे या न छूटे, तुम अशांति से छूट जाते हो। इस मन की व्यवस्था को समझें। मन अशांत है, तुम कहते हो शांत होना चाहिए। मन तो अशांत था, एक और नई अशांति तुमने जोड़ी कि अब शांत होना चाहिए। मन की अशांति को समझो।
SR No.032110
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year
Total Pages407
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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