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________________ आए। उन्होंने कहा, यह मामला क्या है? श्रइरबाई कहती है, बापजी से पूछ लेना । 'बापजी' मुझे कहना नहीं चाहिए, क्योंकि वह होगी सत्तर - अस्सी साल की। मैंने कहा, वह ठीक कहती है। क्योंकि जो मैंने कहा था वही उसने किया। मैंने कहा था, कुछ न करो, शांत साक्षी हो जाओ! वे उसके पास गए। उन्होंने कहा, उन्होंने तो ऐसा कहा । वह कहने लगी कि ठीक कहा । वहा तो बड़ी भीड़-भाड़ थी, उपद्रव था। कई लोग कुछ-कुछ कर रहे थे। मैं इस कोठरी में आ कर बैठ गई, मैंने कुछ न किया, बड़ा ध्यान लगा । फिर वह अपने गांव वापिस गई तो गाव के लोगों ने पूछा कि वहा से क्या लाई, तो उसने अपनी कोठरी पर 'चुप लिखवा दिया। उसने कहा कि इतना ही समझी मैं तो, वे कहे तो बहुत-सी बातें लेकिन मेरी बुद्धि में ज्यादा नहीं समाता, मैं तो गैर-पढ़ी लिखी हूं; 'चुप - इतना ही मेरी समझ में आया। वह अपनी कोठरी पर लिखवा रखा है कि इतना उनकी बातों में से मैं समझ पाई। कहते तो वे बहुत कुछ हैं इतना मैं पकड़ पाई। वही मैं तुमको कह सकती हूं। वह जो कोरा कागज है, वह कहता है 'चुप' । वह जो कोरा कागज है, वही कुरान है, वही धम्मपद वही अष्टावक्र की संहिता है । उस कोरे कागज के लिए ही सारे शास्त्रों ने चेष्टा की है कि तुम्हारी समझ में कोरा कागज पढ़ना आ जाए। शून्य को समझाने के लिए शब्दों का सहारा लिया है; लेकिन शब्दों को समझाने के लिए नहीं - शून्य को समझाने के लिए। मौन में ले जाने के लिए भाषा का प्रयोजन है। तुम साक्षी बनो! तुम कोरे भीतर शून्य के साक्षी बनो! वहीं निर्वाण घटित होता है, समाधि घटित होती है! चौथा प्रश्न : कल आपने मोह और ज्ञान के गंगा तट जाने की कथा कही । उसमें मोह तो गंगा में स्नान कर प्रेम को उपलब्ध हो गया लेकिन ज्ञान का क्या हुआ? कृपा कर ज्ञान की नियति पर भी थोड़ा प्रकाश डालें ! वह अभी भी भटक रहा है। ज्ञान अभी भी भटक रहा है। ज्ञान बड़ी अकड़ी हुई बात है। तुम पंडित से ज्यादा अहंकारी और किसको पाओगे? धनी भी उतना अहंकारी नहीं होता, जितना अहंकारी तथाकथित ज्ञानी हो जाता है। जिसको यह लगता है कि मुझे मालूम है, उसकी अकड़ का क्या कहना ! ज्ञान तो राजी न हुआ कल्प- गंगा में उतरने को । कल्प- गंगा ने तो दोनों को कहा था - ज्ञान और मोह दोनों खड़े थे किनारे । ज्ञान और मोह को तुम ऐसा समझ लो कि हृदय और बुद्धि, संकल्प
SR No.032110
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year
Total Pages407
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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