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________________ तो ध्यान पूरा हुआ। जब तक ध्यान छूट न सके तब तक जानना अभी कच्चा है, अभी पका नहीं। जब फल पक जाता है तो वृक्ष से गिर जाता है। और जब ध्यान का फल पक जाता है, तब ध्यान का फल भी गिर जाता है। जब ध्यान का फल गिर जाता है तब समाधि फलित होती है। पतंजलि ने ध्यान की प्रक्रिया को तीन हिस्सों में बांटा है. धारणा, ध्यान, समाधि | धारणा छोटी-सी पगडंडी है, जो तुम्हें राजपथ से जोड़ देती है। तुम जहां हो वहां से राजपथ नहीं गुजरता । एक छोटी-सी पगडंडी है, जो राजपथ से जोड़ती है। मार्ग, जो राजमार्ग से जोड़ देता है-धारणा। फिर राजमार्ग- ध्यान। फिर राजमार्ग मंजिल से जोड़ देता है-मदिर से, अंतिम गंतव्य से । धारणा छूट जाती है जब ध्यान शुरू होता है। ध्यान छूट जाता जब समाधि आ जाती है। इसलिए ध्यान करना-उतने ही भाव से जैसे गणेश को हिंदू निर्मित करते हैं, उतने ही अहोभाव से! ऐसा मन में खयाल मत रखना कि 'इसे छोड़ना है तो क्या तो क्या रंगना ? कैसे भी बना लिया क्या फिक्र करनी कि सुंदर है कि असुंदर है, कोई भी रंग पोत दिए, चेहरा जंचता है कि नहीं जंचता, आंख उभरी कि नहीं उभरी, नाक बनी कि नहीं क्या करना है? अभी चार दिन बाद तो इसे विदा कर देना होगा, तो कैसे ही बना-बनू कर पूजा कर लो।' नहीं, तो फिर पूजा हुई ही नहीं। तो छोड़ने की घड़ी आएगी ही नहीं। जब बने ही नहीं गणेश तो विसर्जन कैसे होगा ? तो जब ध्यान करो, तब ऐसे करना जैसे सारा जीवन दाव पर लगा है। तब ही उस महाघडी का आगमन होगा, वह महासौभाग्य का क्षण आएगा जब तुम पाओगे अब विसर्जन का समय आ गया; अब ध्यान को भी छोड़ दें; अब ध्यान से भी ऊपर उठ जाएं, अब समाधि; अब समाधान; अब मंजिल | तो मैं तुमसे यह विरोधाभास कहता हूं कि जो ध्यान को समग्रता से करेंगे वे ही एक दिन ध्यान को समग्रता से छोड़ पाएंगे। और जिन्होंने ऐसे-ऐसे किया, कुनकुने -कुनकुने किया, और कभी उबले नहीं और भाप न बने, उनकी कभी छोड़ने की घड़ी न आएगी। वे इसी किनारे अट्के रह जाएंगे। जैन शास्त्रों में एक कथा है। एक साधु स्नान कर रहा है। और वह देख रहा है कि एक आदमी आया, वह नाव में बैठा, पतवार चलाई, लेकिन कुछ हैरान है। वह साधु हंसने लगा। उस आदमी ने पूछा कि मेरे भाई, तुम्हें शायद पता हो, मामला क्या है? यह नाव चलती क्यों नहीं? उस साधु ने कहा कि सज्जन पुरुष महाशय ! नाव किनारे से बंधी है । पतवार चलाने से कुछ भी न होगा। पहले खूंटी से रस्सी तो खोल लो! वे पतवार चला रहे हैं, तेजी से चला रहे हैं! यह सोच कर कि शायद धीमे-धीमे चलाने से नाव नहीं चल रही है, तो और तेजी से चलाओ। पसीने-पसीने हुए जा रहे हैं। लेकिन नाव किनारे से बंधी है। उसे छोड़ा नहीं गया। नाव चलाने के पहले किनारे से छोड़ लेना जरूरी है। तो अगर तुमने आधे - आधे मन से ध्यान किया तो नाव किनारे से छूटेगी ही नहीं। तो तुम उस किनारे कभी पहुंचोगे ही नहीं उतरने की घड़ी कभी आएगी ही नहीं अष्टावक्र ने जनक को कहा कि सब अनुष्ठान बंधन हैं। बिलकुल ठीक कहा। लेकिन तुम यह
SR No.032110
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year
Total Pages407
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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