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________________ और ने कभी जाना होगा? पृथ्वी पर अनेक प्रेमी हुए अनंत प्रेमी हुए लेकिन जब भी प्रेम की किरण उतरती है किसी हृदय में, तो उसे लगता है ऐसा प्रेम बस मैं ही जान रहा हूं। क्योंकि प्रेम पुनरुक्ति नहीं है; तुम किसी से उधार नहीं लेते। जब घटता है तो तुम्हें घटता है। और जब घटता है तो तुम्हें तो पहली बार ही घटता है। दूसरों को घटा, इसका न तो तुम्हें पता हो सकता। दूसरों को कैसा घटा, इसका कोई अनुभव भी तुम्हें नहीं हो सकता । तुम्हें तो अपना ही अनुभव प्रतीत होता है। इसलिए सत्य जब भी घटता है तो मौलिक उदघोषणा होती है। इस कारण ही अनुयायी बड़े धोखे में पड़ जाते हैं। अनुयायी भी दावा करने लगते हैं कि जो कपिल ने जाना वह किसी ने नहीं जाना; जो अष्टावक्र ने जाना वह किसी ने नहीं जाना; जो कृष्णमूर्ति कहते हैं वह किसी ने नहीं कहा। यह अनुयायी की भ्रांति है। यही जाना गया है, अन्यथा जानने को कुछ है ही नहीं। और यही कहा गया है। शब्दों के कितने ही भेद हों, सुनने वालों के कितने ही भेद हों - यही जाना गया है, यही कहा गया है! लेकिन जब भी यह जाना जाता है तो सत्य का यह गुणधर्म है कि उसके साथ-साथ मौलिक होने की स्फुरणा होती है। तुम्हें लगता है, बस पहली दफा ! न ऐसा कभी हुआ न ऐसा फिर कभी होगा। जब बुद्ध को सत्य का अनुभव हुआ तो उन्होंने उदघोषणा की अपूर्व पहले कभी हुआ नहीं ऐसा मुझे अनुभव हुआ है। यह उनके संबंध में घोषणा है। लेकिन शिष्यों ने समझा कि अपूर्व! अर्थात किसी को ऐसा नहीं हुआ, जैसा बुद्ध को हुआ है। भ्रांति हो गई। फिर बुद्ध के पीछे चलनेवाला दावा करता है कि जो बुद्ध को हुआ वह महावीर को नहीं हुआ। जो बुद्ध को हुआ वह शंकर को नहीं हुआ। जो बुद्ध को हुआ वह अपूर्व है। खुद बुद्ध का वचन है कि जो मुझे हुआ वह अपूर्व है। लेकिन बुद्ध के वचन का अर्थ बड़ा भिन्न है । बुद्ध सिर्फ अपने अनुभव की बात कर रहे हैं। वे कह रहे हैं, ऐसा मुझे कभी न हुआ था । यह सुबह पहली बार हुई। यह रात पहली बार टूटी। यह अंधेरा पहली बार हटा है। अनुत्तर अपूर्व समाधि-बुद्ध ने कहा। लेकिन जब भी किसी को समाधि घटती है, तभी अनुत्तर अपूर्व होती है। उपद्रव होता है सुनने वाले श्रावक, अनुयायी, पाथिक से। जैसे ही तुम सुनते हो, एक बड़ी अड़चन होती है। मैं तुमसे कुछ कह रहा हूं, जब तक मैंने नहीं कहा तब तक सत्य है, जैसे ही मैंने कहा और तुमने सुना, असत्य हुआ। क्योंकि जो मैं कह रहा हूं वह मेरा अनुभव है। जो तुम सुन रहे हो वह तुम्हारा अनुभव नहीं । जो मैं कह रहा हूं, वह मेरी प्रतीति है; जो तुम सुन रहे हो वह ज्यादा से ज्यादा तुम्हारा विश्वास होगा। विश्वास असत्य है। तुम मानोगे, तुमने जाना नहीं। मानने से उपद्रव खड़ा होता है। फिर, मानने वालों में संघर्ष खड़ा होता है। क्योंकि किसी ने बुद्ध को सुना किसी ने महावीर को सुना, किसी ने कपिल को, किसी ने अष्टावक्र को, किसी ने कृष्णमूर्ति को । उन्होंने अलग- अलग अभिव्यक्तियां सुनीं। एक ही गीत है, लेकिन हर कंठ से स्वर भिन्न हो जाते हैं।
SR No.032110
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year
Total Pages407
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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