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________________ है कि शुद्धि दोहरी हो जानी चाहिए, दुगनी हो जानी चाहिए। मगर जिंदगी में गणित नहीं चलता। जिंदगी गणित से कुछ ज्यादा है। दो शुद्ध चीजों को भी मिलाओ तो दोनों अशुद्ध हो जाती हैं। तुम कहते हो, दूध अशुद्ध हो गया, क्योंकि दूध की तुम्हें जरूरत है, दूध के दाम लगते हैं। पानी भी अशुद्ध हो गया। तो अशुद्धि का अर्थ समझ लेना मल-मूत्र भी पड़ा हो और तुम उसमें सोना डाल दो तो मलमूत्र भी अशुद्ध हो गया। मलमूत्र मलमूत्र की तरह शुद्ध है। शुद्ध का मतलब यह कि सिर्फ स्वयं है। शुद्ध का अर्थ ही इतना होता है : स्वयं होना। मुल्ला नसरुद्दीन एक चाय-घर मैं बैठ कर गप-शप कर रहा था और कह रहा था कि भगवान ने सब चीजें परिपूर्ण बनाई हैं। भगवान पूर्ण है तो भगवान ने हर चीज पूर्ण बनाई। लोग बड़ी गंभीरता से सुन रहे थे, बात जंच भी रही थी, तभी एक कुबड़ा आदमी-रहा होगा अष्टावक्र जैसा-खड़ा हो गया। और उसने कहा, मेरे संबंध में क्या ? वह कई जगह से इरछा-तिरछा था। थोड़ा तो मुल्ला भी चौंका कि जरा मुश्किल बात है। उसने कहा कि तू बिलकुल. तेरे संबंध में भी सही है। तुझ जैसा परिपूर्ण कुबड़ा मैंने देखा ही नहीं। तू बिलकुल पूर्ण कुबड़ा है। इसमें और सुधार करने का उपाय नहीं है। परमात्मा बनाता ही पूर्ण चीजें है, तुझे पूर्ण कुबड़ा बनाया है! प्रत्येक वस्तु जैसी है, अपने में शुद्ध है। तो शुद्ध का अर्थ हुआ : स्वभाव में होना। अशुद्ध का अर्थ हुआ परभाव में होना। जब भी तुम पर का भाव करते हो विशुद्धता खो जाती है, अशुद्ध हो जाते हो। धन चाहा तो तुम्हारी चेतना में धन की छाया पड़ने लगी, पद चाहा तो पद की छाया पड़ने लगी; प्रतिष्ठा चाही तो प्रतिष्ठा की छाया पड़ने लगी। जब तक तुमने कुछ चाहा, चाह का अर्थ ही है अपने से अन्यथा की चाह। स्वयं को तो कौन चाहता है! स्वयं तो तुम हो ही, चाहने को कुछ है नहीं। इसलिए तो लोग आत्मा को चकते चले जाते हैं, क्योंकि आत्मा को कोई चाहेगा क्यों! आत्मा तो है ही। जो नहीं है, उसे हम चाहते हैं। जो हम नहीं हैं, उसे हमाचाहते हैं और उसकी चाह ही हमें अशुद्ध करती है। ते केन अपि संग: न अत: शुद्धः तू शुद्ध है जनक, क्योंकि तेरी कोई चाह नहीं। किम् त्यक्तुम इच्छसि। लेकिन तेरे भीतर मैं देखता हूं इच्छा पैदा हो रही है त्याग की। किसे तू छोड़ना चाहता है? किसे? क्योंकि छोड़ने में भ्रांति-मेरी है-ऐसी तो रहेगी ही। इतना जान लेना काफी है कि मेरा कुछ भी नहीं-त्याग हो गया! न कहीं भागना है, न कहीं जाना है। तुम जहां हो वहीं बैठे -बैठे किर कानों -कान खबर भी न होगी, पत्नी पास ही बैठी रहेगी, बच्चे वहीं खेलते रहेंगे, दुकान चलती रहेगी, ग्राहक आते-जाते रहेंगे, तुम वहीं बैठे-बैठे इस छोटे से बोध के दीए से मुक्त हो जा सकते हो कि मेरा कुछ भी नहीं! किम् त्यस्तुम इच्छसि।
SR No.032110
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year
Total Pages407
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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