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________________ हैं। वह प्रलोभन, जो हर त्यागी के लिए खड़ा होता है; वह प्रलोभन, जो भोग से भागते हुए आदमी के लिए खड़ा होता है। आज वे फुसलाते हैं जनक को कि तू त्यागी हो जा। अब तुझे ज्ञान हो गया अब तू त्याग को उपलब्ध हो जा। अब छोड़ सब! अब उठ इस मायामोह के ऊपर ! ये जो सूक्ष्म प्रलोभन अष्टावक्र देते हैं जनक को, यह पहली परीक्षा से भी कठिनतर परीक्षा है। लेकिन यह प्रत्येक भोग से हटने वाले आदमी के जीवन में आता है; इसलिए बिलकुल ठीक अष्टावक्र करते हैं। ठीक ही है यह प्रलोभन का देना । और जब तक कोई त्याग से भी मुक्त न हो जाए तब तक कोई मुक्त नहीं होता। भोग से तो मुक्त होना ही है, त्याग से भी मुक्त होना है। संसार से तो मुक्त होना ही है। मोक्ष से भी मुक्त होना है। तभी परम मुक्ति फलित होती है। परम मुक्ति का अर्थ ही यही है कि अब कोई चीज की आकांक्षा न रही। त्याग में तो आकांक्षा है। तुम त्याग करते हो तो किसी कारण करते हो। और जहां कारण है, वहा कैसा त्याग ? फिर भ और त्याग में फर्क क्या रहा? दोनों का गणित तो एक हो गया। एक आदमी भोग में पड़ा है, धन इकट्ठा करता, सुंदर स्त्री की तलाश करता, सुंदर पुरुष को खोजता, बड़ा मकान बनाता - तुम पूछो उससे क्यों बना रहा है? वह कहता है, इससे सुख मिलेगा । एक आदमी सुंदर मकान छोड़ देता, पत्नी को छोड़ कर चला जाता, घर-द्वार से अलग हो जाता, नग्न भटकने लगता, संन्यासी हो जाता - पूछो उससे, यह सब तुम क्यों कर रहे हो? वह कहेगा, इससे सुख मिलेगा। तो दोनों की सुख की आकांक्षा है और दोनों मानते हैं कि सुख को पाने के लिए कुछ किया जा सकता है। यही भ्रांति है। सुख स्वभाव है। उसे पाने के लिए तुम जब तक कुछ करोगे, तब तक उसे खोते रहोगे। तुम्हारे पाने की चेष्टा में ही तुमने उसे गंवाया है । संसारी एक तरह से गवाता, त्यागी दूसरी तरह से गवाता । तुम किस भांति गंवाते, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता । तुम किस ढंग की शराब पीकर बेहोश हो, इससे कुछ फर्क नहीं पड़ता। तुम किस मार्के की शराब पीते हो, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। लेकिन इस गणित को ठीक खयाल में ले लेना । संसारी कहता है, इतना इतना मेरे पास होगा तो मैं सुखी हो जाऊंगा। त्यागी कहता है, मेरे पास कुछ भी न होगा तो मैं सुखी हो जाऊंगा। दोनों के सुख सशर्त हैं। और जब तक तुम शर्त लगा रहे हो सुख पर तब तक तुम्हें एक बात समझ में नहीं आई कि सुख तुम्हारा स्वभाव है। उसे पाने कहीं जाना नहीं सुख मिला ही हुआ है। तुम जाना छोड़ दो। तुम कहीं भी खोजो मत। तुम अपने भीतर विश्राम में उतर जाओ। यही तो अष्टावक्र ने प्राथमिक सूत्रों में कहा. चैतन्य में विश्राम को पहुंच जाना ही सुख है, आनंद है, सच्चिदानंद है। तुम कहीं भी मत जाओ! तरंग ही न उठे जाने की! जाने का अर्थ ही होता है : हट गए तुम अपने स्वभाव से। मांगा तुमने कुछ, चाहा तुमने कुछ, खोजा तुमने कुछ - स्मृत हुए अपने स्वभाव से । न मांगा, न खोजा, न कहीं गए की आंख बंद, डूबे अपने में!
SR No.032110
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year
Total Pages407
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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