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________________ इसको साथ ले कर भूमि से आकाश तक चलते रहो मर्त्य नर का भाग्य जब तक प्रेम की धारा न मिलती आप अपनी आग में जलते रहो। यह जो आज जलन है, यही कल फूल की तरह खिलेगी। यह आज जो अग्नि है, यही कल तुम्हारे भीतर कमल बनेगी। मगर बांटों! प्रेम सूत्र है। और प्रेम के जगत में 'कैसे का कोई संबंध नहीं! बेशर्त बांटी। यह भी मत कहना 'किसको! यह तो कंजूस पूछता है। पात्र-अपात्र, यह भी कंजूस पूछता है। हम कौन हैं तय करें-कौन पात्र, कौन अपात्र? जो मिल जाए, दे दो। और जो तुमसे तुम्हारे प्रेम को ले ले, उसका धन्यवाद मानना, आभार मानना; इंकार भी कर सकता था। उसने इंकार न किया, तुम धन्यभागी हो। उसने तुम्हें अपने को लुटाने का थोड़ा मौका दिया, क्योंकि उस लुटाने से ही तुम और भरोगे उसे धन्यवाद देना! प्रेम जीवन में आए तो धीरे- धीरे प्रार्थना भी आ जाती है। और जब तक काव्य की क्षमता भजन न बने, जब तक काव्य प्रार्थना न बने, तब तक कवि को बड़ी बेचैनी रहेगी। तुम्हारा काव्य जब उपनिषद बन जाए, तो कवि मर जाता है और ऋषि का जन्म होता है। ऋषि और कवि दोनों शब्दों का एक ही अर्थ है। फर्क इतना ही है कि कवि चेष्टा करके हृदय के भावों को शब्दों में डालता है; और ऋषि निश्चेष्टा से, सहजता से, सहज स्फुरणा से, भाव को बहने देता है मस्तिष्क की चट्टानों पर से। उससे जो रव पैदा होता है, जो संगीत पैदा होता है-वही उसका काव्य है। और वही उसका नैवेदय है प्रभु के चरणों में। आखिरी प्रश्न मेरे माजी के तल्स अंधेरों में, बता 'रजनीश ' क्या देखा तूने? गर्दिश -ए- अथ्याम में था उलझा, या बाहर उलझनों से आते देखा? (मेरे अतीत के गहरे अंधेरे में क्या देखा? क्या मैं भाग्य-चक्र में उलझा था या भाग्य- चक्र के बाहर आ रहा था।) दिनेश ने पूछा है।
SR No.032110
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year
Total Pages407
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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