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________________ गिर कर तुम्हें साइकिल चलाने की कला आ जाएगी। वह कला है, विज्ञान नहीं। विज्ञान होता तो दूसरा दे देता। कला कोई दे नहीं सकता, कला सीखनी पड़ती है अनुभव से। तो तुमने मुझसे पूछा है कि 'प्रश्न है जब तक विवेक न हो तब तक कैसे पता चले कि जो आवाज अंदर से आ रही है वह विवेक-जन्य है या मन का ही एक खेल है?' । कोई उपाय नहीं है जानने का। अनुभव से ही तुम्हें धीरे-धीरे पता चलेगा। कैसे पता चलेगा? जो मन का खेल है, उससे तुम हमेशा तकलीफ में पड़ोगे-हमेशा तकलीफ में पड़ोगे, दुख आएगा! और जो मन का खेल नहीं है, उससे हमेशा आनंद की स्फुरणा होगी। वही कसौटी है। जो भीतर से आ रही, अंतरात्मा से, उसका फल सदा ही आनंद है, सच्चिदानंद है। जो मन का है जाल, उससे तुम हमेशा दुख पाओगे। दुख से पता चलेगा। करके ही पता चलेगा किससे दुख मिला, किससे सुख मिला। जिससे सुख मिले, वह सत्य की तरफ जा रही है यात्रा, और जिससे दुख मिले, वह असत्य की तरफ जा रही है यात्रा। तुमने सुना है, पढ़ा है कि नर्क में दुख है। अच्छा हो इसे थोड़ा उल्टा कर लो : दुख में नर्क है। तो जहां-जहां दुख मिले, तुम समझ लेना कि नर्क की तरफ चल रहे हो, गड्डे में गिर रहे हो। जहां-जहां सुख मिले, तरंग आए समाधि की, लहर उठे, गीत फूटे, खिले भीतर के इंद्रधनुष, सुवास उठे, संगीत जन्मे-समझना कि चल रहे स्वर्ग की तरफ। । चलते-चलते, गिरते -उठते आदमी सीखता है। एक भल कभी मत करना और वह भल है. बैठे मत रह जाना भूल के डर से। भूल करनी ही होगी। हौ, एक ही भूल को दुबारा करने की कोई जरूरत नहीं। तो बोधपूर्वक भूल करना। और एक भूल जब हो जाए और पता चल जाए तो पछताते मत बैठे रहना कि भूल हो गई। उतना अनुभव हुआ। लाभ हुआ। अब आगे ऐसी भूल दुबारा न हो इसकी गांठ बांध लेना। ऐसे धीरे - धीरे तुम पाओगे, भूल कम होती गईं, कम होती गईं, एक दिन भूल समाप्त हो गई और तुम्हारे जीवन में विवेक का उदय हो गया। तुमसे मैं यह पूछता हूं तुमने पूछा है कि ' अगर हम दूसरे से उपदेश न लें तो हमें कैसे पक्का पता चलेगा कि क्या ठीक और क्या गलत? क्या मन का खेल और कया विवेक की आवाज? ' मैं तुमसे पूछता हूं बिना विवेक के जगे तुम कैसे पक्का करोगे कि किसकी मानें और किसकी न मानें प्रश्न तो वही का वही है। हजारों लोग हैं, हजारों शास्त्र हैं, हजारों शास्ता हैं, सबके मंतव्य अलग हैं, सबकी दृष्टि अलग है-इसमें तुम किसको चुनोगे? महावीर को चुनोगे कि कृष्ण को चुनोगे? कैसे चुनोगे? क्योंकि महावीर कहते हैं, चींटी भी न मरे, नहीं तो सडोगे नरकों में। कृष्ण कहते हैं. फिक्र ही मत कर, सब उसकी लीला है! तू बेधड़क मार। तू मारने वाला कौन? और फिर कभी आत्मा मारी गई है? न हन्यते हन्यमाने शरीरे। यह तो शरीर ही गिरता-उठता है, आत्मा कभी मरती नहीं। तू तलवार से काटेगा, तब भी नहीं कटती। नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि। तू फिक्र ही छोड़, यह तो खेल है! किसकी मानोगे? कैसे तय करोगे? कौन ठीक इन दो गुरुओं में? तय करने का लोगों ने एक सस्ता रास्ता निकाल लिया है. जिस घर में पैदा हुए। अगर जैन घर में पैदा हुए तो महावीर को मानेंगे।
SR No.032110
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year
Total Pages407
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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