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________________ दर्शक होना एक तरह का आत्म-विस्मरण है । और द्रष्टा होने का अर्थ है: सब दृश्य विदा हो गए, पर्दा खाली हो गया; अब कोई फिल्म नहीं चलती वहां; न कोई विचार रहे, न कोई शब्द रहे; पर्दा बिलकुल शून्य हो गया – कोरा और शुभ्र, सफेद ! देखने को कुछ भी न बचा; सिर्फ देखने वाला बचा। और अब देखने वाले में डुबकी लगी, तो द्रष्टा ! कोई दृश्य और दर्शक, मनुष्यता इनमें बंटी है। कभी-कभी कोई द्रष्टा होता है— कोई अष्टावक्र, कृष्ण, कोई महावीर, कोई बुद्ध । कभी-कभी कोई जागता और द्रष्टा होता है। 'तू सबका एक द्रष्टा है । ' और इस सूत्र की खूबियां ये हैं कि जैसे ही तुम द्रष्टा हुए, तुम्हें पता चलता है: द्रष्टा तो एक ही है संसार में, बहुत नहीं हैं। दृश्य बहुत हैं, दर्शक बहुत हैं। अनेकता का अस्तित्व ही दृश्य और दर्शक के बीच है। वह झूठ का जाल है। द्रष्टा तो एक ही है। ऐसा समझो कि चांद निकला, पूर्णिमा का चांद निकला । नदी-पोखर में, तालाब-सरोवर में, सागर में, सरिताओं में, सब जगह प्रतिबिंब बने। अगर तुम पृथ्वी पर घूमो और सारे प्रतिबिंबों का अंकन करो तो करोड़ों, अरबों, खरबों प्रतिबिंब मिलेंगे — लेकिन चांद एक है; प्रतिबिंब अनेक हैं। द्रष्टा एक है; दृश्य अनेक हैं, दर्शक अनेक हैं। वे सिर्फ प्रतिबिंब हैं, वे छायाएं हैं। तो जैसे ही कोई व्यक्ति दृश्य और दर्शक से मुक्त होता है- -न तो दिखाने की इच्छा रही कि कोई देखे, न देखने की इच्छा रही; देखने और दिखाने का जाल छूटा; वह रस न रहा तो वैराग्यं । अब कोई इच्छा नहीं होती कि कोई देखे और कहे कि सुंदर हो, सज्जन हो, संत हो, साधु हो। अगर इतनी भी इच्छा भीतर रह गयी कि लोग तुम्हें साधु समझें तो अभी तुम पुराने जाल में पड़े हो। अगर इतनी भी आकांक्षा रह गयी मन में कि लोग तुम्हें संत पुरुष समझें तो तुम अभी पुराने जाल में पड़े हो; अभी संसार नहीं छूटा। संसार ने नया रूप लिया, नया ढंग पकड़ा; लेकिन यात्रा पुरानी ही जारी है; सातत्य पुराना ही जारी है। क्या करोगे देखकर ? खूब देखा, क्या पाया? क्या करोगे दिखाकर ? कौन है यहां, जिसको दिखाकर कुछ मिलेगा ? इन दोनों से पार हट कर, द्वंद्व से हट कर जो द्रष्टा में डूबता है, तो पाता है कि एक ही है। यह पूर्णिमा का चांद तो एक ही है। यह सरोवरों, पोखरों, तालाबों, सागरों में अलग-अलग दिखायी पड़ता था; अलग-अलग दर्पण थे, इसलिए दिखायी पड़ता था । मैंने सुना है, एक राजमहल था । सम्राट ने महल बनाया था सिर्फ दर्पणों से। दर्पण ही दर्पण थे अंदर। कांच-महल था। एक कुत्ता, सम्राट का खुद का कुत्ता, रात बंद हो गया, भूल से अंदर रह गया। उस कुत्ते की अवस्था तुम समझ सकते हो क्या हुई होगी। वही आदमी की अवस्था है। उसने चारों तरफ देखा, कुत्ते ही कुत्ते थे ! हर दर्पण में कुत्ता था । वह घबड़ा गया। वह भौंका । जब आदमी भयभीत होता है तो दूसरे को भयभीत करना चाहता है। शायद दूसरा भयभीत हो जाये तो अपना भय कम हो जाये । वह भौंका, लेकिन स्वभावतः वहां तो दर्पण ही थे; दर्पण-दर्पण से कुत्ते भौंके। आवाज उसी पर लौट आयी; अपनी ही प्रतिध्वनि थी । वह रात भर भौंकता रहा और भागता और दर्पणों से जूझता, 62 अष्टावक्र: महागीता भाग-1
SR No.032109
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages424
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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