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________________ इतना ही हुआ कि मिला ही हुआ है; जरा आंख खोलो और देखो! मिल सकने की भाषा ठीक नहीं है। मिल सकने में तो ऐसा लगता है कि तुम अलग हो और परमात्मा अलग है; तुम खोजने वाले हो, वह खोज का लक्ष्य है; तुम यात्री हो, वह मंजिल है। नहीं, अभी और यहीं मिल सकता है का इतना ही अर्थ है कि तुम वही हो जिसे तुम खोज रहे हो। जरा अपने को पहचानो। आंख खोलो और देखो! या आंख बंद करो और देखो मगर देखो! थोड़ी दृष्टि की बात है, पात्रता की नहीं। पात्रता का तो अर्थ हुआ कि परमात्मा भी सौदा है। जैसे तुम बाजार में जाते हो तो कोई चीज हजार रुपये की है, कोई लाख रुपये की है, कोई दस लाख रुपये की है—हर चीज का मूल्य है। तो पात्रता का तो अर्थ हआ कि परमात्मा का भी मूल्य है; जो पात्रता अर्जित करेगा, मूल्य चुकायेगा, उसे मिलेगा। तुम परमात्मा को भी बाजार में एक वस्तु बना लेना चाहते हो। त्याग करोगे, तपश्चर्या करोगे, तो मिलेगा! मूल्य चुकाओगे तो मिलेगा! मुफ्त कहीं मिलता है! तुम परमात्मा को खींच कर दुकान पर रख देते हो; डब्बे में बंद कर देते हो, दाम लिख देते हो। तुम कहते होः इतने उपवास करो; इतना ध्यान करो; इतनी तपश्चर्या करो; धूप में तपो; सर्दी, आतप सहो-तब मिलेगा! . कभी इस पर तुमने सोचा कि यह तुम क्या कह रहे हो? तुम यह कह रहे हो कि तुम्हारे कुछ करने से परमात्मा के मिलने का संबंध हो सकता है। तुम जो करोगे, वह तुम्हारा किया ही होगा। तुम्हारा किया तुमसे बड़ा नहीं हो सकता। तुम्हारी तपश्चर्या तुम्हारी ही होगी। तुम जैसी ही दीन, तुम जैसी ही मलिन। तुम्हारी तपश्चर्या तुमसे बड़ी नहीं हो सकती। और तपश्चर्या से जो मिलेगा उसकी भी सीमा होगी: क्योंकि सीमित से सीमित ही मिल सकता है, असीम नहीं। तपश्चर्या से जो मिलेगा वह तुम्हारे ही मन की कोई धारणा होगी, परमात्मा नहीं। अष्टावक्र कह रहे हैं कि परमात्मा तो है ही। वही तुम्हारे भीतर धड़क रहा है। वही तुम्हारे भीतर श्वास ले रहा है। वही जन्मा है। वही विदा होगा। वही अनंत काल से, अनंत-अनंत रूपों में प्रगट हो रहा है। कहीं वृक्ष है, कहीं पक्षी है, कहीं मनुष्य है। परमात्मा है! उसके अतिरिक्त कुछ भी नहीं है। इस सत्य की प्रत्यभिज्ञा, इस सत्य का स्मरण... । ___ मैंने सुना है, एक सम्राट अपने बेटे पर नाराज हो गया, उसे देश-निकाला दे दिया। सम्राट का बेटा था, कुछ और तो करना जानता नहीं था, क्योंकि सम्राट के बेटे ने कभी कुछ किया न था, भीख ही मांग सकता था। जब कोई सम्राट सम्राट न रह जाये तो भिखमंगे के सिवा और कोई उपाय नहीं बचता। भीख मांगने लगा। बीस वर्ष बीत गये। भूल ही गया। अब बीस वर्ष कोई भीख मांगे तो याद रखना कि मैं सम्राट हूं, असंभव, कष्टपूर्ण होगा; भीख मांगने में कठिनाई पड़ेगी; यही उचित है कि भूल ही जाओ। वह भूल ही गया था, अन्यथा भीख कैसे मांगे! सम्राट, और भीख मांगे! द्वार-द्वार, दरवाजे-दरवाजे भिक्षापात्र ले कर खड़ा हो! होटल में, रेस्तरां के सामने भीख मांगे! जूठन मांगे! सम्राट! सम्राट को भुला ही देना पड़ा, विस्मृत ही कर देना पड़ा। वह बात ही गई। वह जैसे अध्याय समाप्त हुआ। वह जैसे कि कहीं कोई सपना देखा होगा, कि कोई कहानी पढ़ी होगी, कि फिल्म देखी होगी, अपने से क्या लेना-देना! बीस साल बाद जब सम्राट बूढ़ा हो गया, उसका बाप, तो वह घबड़ाया : एक ही बेटा था। वही मालिक था। उसने अपने वजीरों को कहा ः उसे खोजो और जहां भी हो उसे ले आओ। कहना, बाप 40 अष्टावक्र: महागीता भाग-1
SR No.032109
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages424
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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