SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 403
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कि आत्मा अमर है; मौत के डर के कारण...। तुमने देखा, यह भारत है। यह पूरा मुल्क मानता है कि आत्मा अमर है, और इससे ज्यादा कायर कम खोजनी मुश्किल है। होना तो उल्टा चाहिए। आत्मा जिनकी अमर है, उनको कोई गुलाम बना सकता है? लेकिन एक हजार साल तक ये गुलाम बने रहे। आत्मा अमर है ! नहीं, आत्मा अमर है का सिद्धांत हम पकड़े ही इसलिए हैं कि मरने से हम डरे हैं। यह सिद्धांत हमारी सुरक्षा है। हम यह सिद्धांत अनुभव से नहीं जाने हैं। अगर अनुभव से जाना होता तो यह मुल्क तो गुलाम बनाया ही नहीं जा सकता, इस मुल्क को तो कोई दबा ही नहीं सकता, क्योंकि जिसकी आत्मा अमर है, उसको तुम क्या दबाओगे ? ज्यादा से ज्यादा धमकी मार डालने की दे सकते हो, वह धमकी भी नहीं दे सकते तुम इस देश को । आत्मा जिनकी अमर है, उनके ऊपर कोई धमकी न चलेगी। लेकिन दिखाई उल्टा पड़ता है। भयभीत लोग, मौत से डरे हुए लोग मंत्र जाप कर रहे हैं आत्मा अमरता के क्षुद्र में पड़े हुए लोग विराट की घोषणा कर रहे हैं । क्षुद्र को छिपाने का आयोजन तो नहीं है विराट की चर्चा ? पाप को छिपाने का आयोजन तो नहीं है पुण्य की चर्चा ? I 1 अगर ऐसा है तो जनक से अष्टावक्र कहने लगे, तू फिर से एक बार भीतर उतर कर देख, ठीक सेकसौटी कर ले। 'अत्यंत सुंदर और शुद्ध चैतन्य आत्मा को सुन कर भी कैसे कोई इंद्रिय विषय में अत्यंत आसक्त हो कर मलिनता को प्राप्त होता है !' श्रुतापि — सुन कर भी ! ध्यान रखना, सुनने से ज्ञान नहीं होता । ज्ञान तो स्वयं के अनुभव से होता है। श्रुति से ज्ञान नहीं होता, शास्त्र से ज्ञान नहीं होता। हिंदुओं ने ठीक किया है कि शास्त्र दो खंड किए हैं— श्रुति और स्मृति । ज्ञान उसमें कोई भी नहीं है । कुछ शास्त्र श्रुतियां कुछ शास्त्र स्मृतियां हैं। न तो स्मृति से ज्ञान होता, न श्रुति से ज्ञान होता । श्रुति का अर्थ है सुना हुआ, स्मृति का अर्थ है याद किया हुआ । जाना हुआ दोनों में कोई भी नहीं है। श्रुत्वाऽपि शुद्धचैतन्यमात्मानमतिसुंदरम् । ऐसा सुन कर कि आत्मा अति सुंदर है, भ्रांति में मत पड़ जाना, मान मत लेना। जब तक जान ही न ले, तब तक मानना मत। विश्वास मत कर लेना, अनुभव को ही आस्था बनने देना । नहीं तो ऊपर-ऊपर तू मानता रहेगा - आत्मा अति सुंदर है - और जीवन के भीतर वही पुरानी मवाद, वही इंद्रिय - आसक्ति, वही वासना के घाव बहते रहेंगे, रिसते रहेंगे। 'अत्यंत सुंदर और शुद्ध चैतन्य आत्मा को सुन कर भी कैसे कोई इंद्रिय विषय में अत्यंत आसक्त हो कर मलिनता को प्राप्त होता है !' इसे ध्यान रख! सुनने वाले बहुत हैं । सुन कर मान लेने वाले बहुत हैं। लेकिन उनके जीवन में तो देख । सुन-सुन कर उन्होंने मान भी लिया है, लेकिन फिर भी मलिनता को रोज प्राप्त होते हैं। मलिनता जाती नहीं। जहां मौका मिला, वहां फिर तीसरा फरेब कि तीन सौवां फरेब, फिर फरेब खाने को तैयार हो जाते हैं । कितनी बार तुमने सोचा कि क्रोध न करेंगे। तुम भलीभांति सुन कर जान चुके हो कि क्रोध पाप जीवन की एकमात्र दीनता वासना 389
SR No.032109
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages424
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy