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तो पद, प्रतिष्ठा, धन — वे सब धन के ही रूप हैं। उनसे हम अपने को भरते हैं, ताकि मैं कह सकूं, 'मैं कुछ हूं! मैं ना कुछ नहीं हूं! देखो, कितना धन मेरे पास है !' ताकि मैं प्रमाण दे सकूं कि मैं कुछ हूं !
· अष्टावक्र कहते हैं कि धन की दौड़ तो उस आदमी की है जिसे भीतर बैठे परमात्मा का पता नहीं । जिसे भीतर बैठे परमात्मा का पता चल गया वह तो धनी हो गया, उसे तो मिल गया धन । राम - रतन धन पायो ! अब उसे कुछ बचा नहीं पाने को । अब कोई धन धन नहीं है; धन तो उसे मिल गया; परम धन मिल गया । और परम धन को पा कर फिर कोई धन के पीछे दौड़ेगा ?
छोटे थे तुम तो खेल-खिलौनों से खेलते थे; टूट जाता खिलौना तो रोते भी थे; कोई छीन लेता तो झगड़ते भी थे। फिर एक दिन तुम युवा हो गये। फिर तुम भूल ही गये वे खेल-खिलौने कहां गये, किस कोने में पड़े-पड़े धीरे से झाड़ कर, बुहार कर कचरे में फेंक दिये गये। तुम्हें उनकी याद भी नहीं रही। एक दिन तुम लड़ते थे। एक दिन तुम उनके लिए मरने-मारने को तैयार हो जाते थे। आज तुमसे कोई पूछे कि कहां गये वे खेल-खिलौने, तो तुम हंसोगे। तुम कहोगे, अब मैं बच्चा तो नहीं, अब मैं युवा हो गया, प्रौढ़ हो गया; मैंने जान लिया कि खेल-खिलौने खेल-खिलौने हैं।
ऐसी ही एक प्रौढ़ता फिर घटती है, जब किसी को भीतर के परमात्मा का बोध होता है। तब संसार के सब खेल-खिलौने धन-पद-प्रतिष्ठा सब ऐसे ही व्यर्थ हो जाते हैं जैसे बचपन के खेल-खिलौने व्यर्थ हो गए। फिर उनके लिए कोई संघर्ष नहीं रह जाता, प्रतिद्वंद्विता नहीं रह जाती, कोई स्पर्धा नहीं रह जाती।
धन की दौड़ आत्महीन व्यक्ति की दौड़ है । जितना निर्धन होता है आदमी भीतर, उतना ही बाहर के धन से भरने की चेष्टा करता है। बाहर का धन भीतर की निर्धनता को भुलाने की व्यवस्था, विधि है । जितना गरीब आदमी होता है, उतना ही धन के पीछे दौड़ता है।
इसलिए तो हमने देखा कि कभी बुद्ध, कभी महावीर, महाधनी लोग रहे होंगे, कि सब छोड़ कर .. निकल पड़े और भिखारी हो गए। इस आश्चर्य की घटना को देखते हो ! यहां निर्धन धन के पीछे दौड़ते रहते हैं, यहां धनी निर्धन हो जाते हैं। जिन्हें भीतर का धन मिल गया, वे बाहर की दौड़ छोड़ देते हैं।
अष्टावक्र ने पूछा कि जनक, जरा पीछे भीतर उतर कर टटोल, कहीं धन की आकांक्षा तो शेष नहीं? अगर धन की आकांक्षा शेष हो तो यह सब जो तू बोल रहा है, सब बकवास है । कसौटी वहां है। अभी भी तू पद तो नहीं चाहता ? अभी भी तू राज्य का विस्तार तो नहीं चाहता ? अभी भी भीतर तृष्णा तुझे पकड़े तो नहीं है ? अगर वासना अभी भी मौजूद है भीतर, तो पक्का जान कि आत्मा का तुझे अनुभव नहीं हुआ। आत्मा का अनुभव तो तभी होता है जब वासना नहीं रह जाती। या आत्मा का अनुभव होते ही वासना नहीं रह जाती। दोनों साथ-साथ नहीं हो सकते। आत्मा और वासना के बीच किसी तरह का सहयोग नहीं हो सकता; जैसे अंधेरे और प्रकाश के बीच किसी तरह का साथ-संग नहीं हो सकता । प्रकाश - तो अंधेरा नहीं; अंधेरा- तो प्रकाश नहीं ।
तू प्रकाश की बातें कर रहा है। तू अचानक महावाक्य बोल रहा है, जनक ! यह इतनी जल्दी हुआ है। इसकी तू कसौटी कर ले। इसे तू जरा खोजबीन कर ले, जांच-पड़ताल कर ले। भीतर उतर। देख, कहीं धन की आकांक्षा तो नहीं छिपी बैठी। अगर छिपी बैठी हो तो यह सब जो तूने कहा, मुझे तूने दोहरा दिया; यह सब बासा है; यह सब उधार है; फिर इसकी बहुत मूल्यवत्ता नहीं है । फिर हमें फिर
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अष्टावक्र: महागीता भाग-1