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अष्टावक्र शब्द दे कर ही की तरफ़ इंगित है इन सूत्रों में ऐसे अभिभूत हो जाओ कि तुम सत्य मान लो ।
रु मात्र शिक्षक ही नहीं है, शास्ता भी है। शास्ता यानी वह,
जीवन को
एक अनुशासन दे, जीवन को शासन
दे। जो मात्र शब्द दे, वह शिक्षक । जो शासन भी दे, वह शास्ता । संतुष्ट नहीं हो गए। शब्द देने के बाद जो पहला खतरा है, उस खतरे शब्द सुन कर गुरु के इस बात की बहुत संभावना है कि तुम शब्द से समझो सब हो गया; तुम शब्द को ही पकड़ लो और शब्द को ही
सदगुरु से निकले हुए शब्दों का बल है, ऊर्जा है। उस ऊर्जा और बल में तुम आविष्ट हो सकते हो, सम्मोहित हो सकते हो। तुम बिना ज्ञानी हुए ज्ञानी बन सकते हो – यही पहला खतरा है। शब्द ठीक मालूम पड़ें, तर्कयुक्त मालूम पड़ें, बुद्धि प्रभावित हो, हृदय प्रफुल्लित हो जाए तो ऐसी घड़ियां आ सकती है सत्संग में, जब जो तुम्हारा अनुभव नहीं है अभी, वह भी अनुभव जैसा मालूम होने लगे।
गुरु परीक्षक भी है। वह तुम्हारी परीक्षा भी करेगा कि जो तुम कह रहे हो वह हुआ भी है या केवल सुनी हुई बात दोहरा रहे हो ?
कहा कि मैं न केवल जाग गया हूं,
अष्टावक्र ने जो उदघोष किया- - परम सत्य का — उस उदघोष का ऐसा परिणाम हुआ कि जनक तत्क्षण प्रतिध्वनि करने लगे । जनक भी वही बोले। और जनक ने कहा कि आश्चर्य कि मैं अब तक कैसे सोया रहा ! और जनक ने कहा कि मैं जाग गया ! और जनक ने मैं जानता हूं मैं ही समस्त का केंद्र, सब मुझसे ही संचालित होता! मुझ का मुझ ही को नमस्कार है! ऐसी महिमा का उदय हुआ। अष्टावक्र चुपचाप खड़े सुनते रहे। यह जो हुआ है, इसे देखते रहे। इन सूत्रों में परीक्षा है । अष्टावक्र प्रश्न उठाते हैं, संदेह उठाते हैं। जनक के घड़े को जगह-जगह से ठोंक कर देखते हैं, कच्चा तो नहीं है ? बातें सुन कर तो नहीं बोल रहा है ? किसी प्रभाव के कारण तो नहीं बोल रहा है? मेरी मौजूदगी के कारण तो ये तरंगें नहीं उठी हैं? ये तरंगें इसकी अपनी हैं? यह क्रांति वस्तुतः घटी है ? यह कहीं बौद्धिक मात्र न हो ।
मेरे पास बहुत लोग आते हैं। उनमें अनेक कृष्णमूर्ति के भक्त हैं। वे मुझसे आकर कहते हैं कि