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इसलिए मैं कहता हूं, यह जड़ मूल से क्रांति है। पतंजलि इतनी हिम्मत से नहीं कहते कि 'अभी ही ।' पतंजलि कहते हैं, ' करो अभ्यास- – यम, नियम; साधो - प्राणायाम, प्रत्याहार, आसन; शुद्ध करो । जन्म-जन्म लगेंगे, तब सिद्धि है।'
महावीर कहते हैं, 'पंच महाव्रत ! और तब जन्म-जन्म लगेंगे, तब होगी निर्जरा; तब कटेगा जाल कर्मों का।'
सुनो अष्टावक्र को
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यदि देहं पृथक्कृत्य चिति विश्राम्य तिष्ठसि ।
अधुनैव सुखी शांतः बंधमुक्तो भविष्यसि ।।
'अधुनैव !' अभी, यहीं, इसी क्षण ! 'यदि तू देह को अपने से अलग कर और चैतन्य में विश्राम कर स्थित है...!' अगर तूने एक बात देखनी शुरू कर दी कि यह देह मैं नहीं हूं, मैं कर्ता और भोक्ता नहीं हूं; यह जो देखने वाला मेरे भीतर छिपा है जो सब देखता है— बचपन था कभी तो बचपन देखा, फिर जवानी आयी तो जवानी देखी, फिर बुढ़ापा आया तो बुढ़ापा देखा; बचपन नहीं रहा तो मैं बचपन तो नहीं सकता — आया और गया; मैं तो हूं! जवानी नहीं रही तो मैं जवानी तो नहीं हो सकताऔर मैं तो हूं ! बुढ़ापा आया जा रहा है, तो मैं बुढ़ापा नहीं हो सकता। क्योंकि जो आता है है, वह मैं कैसे हो सकता हूं ! मैं तो सदा हूं। जिस पर बचपन आया, जिस पर जवानी आई, जिस पर बुढ़ापा आया, जिस पर हजार चीजें आईं और गईं— मैं वही शाश्वत हूं।
स्टेशनों की तरह बदलती रहती है बचपन, जवानी, बुढ़ापा, जन्म – यात्री चलता जाता। तुम स्टेशन के साथ अपने को एक तो नहीं समझ लेते! पूना की स्टेशन पर तुम ऐसा तो नहीं समझ लेते कि मैं पूना हूं! फिर पहुंचे मनमाड़ तो ऐसा तो नहीं समझ लेते कि मैं मनमाड़ हूं! तुम जानते हो कि पूना आया, गया; मनमाड़ आया, गया- तुम तो यात्री हो ! तुम तो द्रष्टा हो - जिसने पूना देखा, पूना आया; जिसने मनमाड़ देखा, मनमाड़ आया ! तुम तो देखने वाले हो !
तो पहली बात : जो हो रहा है उसमें से देखने वाले को अलग कर लो !
'देह को अपने से अलग कर और चैतन्य में विश्राम... ।'
और करने योग्य कुछ भी नहीं है । जैसे लाओत्सु का सूत्र है - समर्पण, वैसे अष्टावक्र का सूत्र है – विश्राम, रेस्ट । करने को कुछ भी नहीं है।
मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं, ध्यान कैसे करें? वे प्रश्न ही गलत पूछ रहे हैं। गलत पूछते हैं तो मैं उनको कहता हूं, करो। अब क्या करोगे! ! तो उनको बता देता हूं कि करो, कुछ न कुछ तो करना ही पड़ेगा - अभी तुम्हें करने की खुजलाहट है तो उसे तो पूरा करना होगा । खुजली है तो क्या करोगे! बिना खुजाए नहीं बनता। लेकिन धीरे-धीरे उनको करवा-करवा कर थका डालता हूं। फिर वे कहते हैं कि अब इससे छुटकारा दिलवाओ ! अब कब तक यह करते रहें? मैं कहता हूं, मैं तो पहले हीराजी था; लेकिन तुम्हें समझने में जरा देर लगी । अब विश्राम करो!
ध्यान का आत्यंतिक अर्थ विश्राम है।
चिति विश्राम्य तिष्ठसि
- जो विश्राम में ठहरा देता अपनी चेतना को; जो होने मात्र में ठहर जाता ...!
सत्य का शुद्धतम वक्तव्य
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