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था, हे प्रभु! द्वार खोलो ! कब से पुकारता हूं। कृपा करो ! मुझ दीन पर अनुकंपा करो ! द्वार खोलो !
हसन की आंखों से आंसू बह रहे हैं। राबिया वहां से निकलती थी, वह खड़ी हो गई, हंसने लगी। और उसने कहा, भाई मेरे आंख तो खोलो, जरा देखो भी, द्वार बंद कहां है? द्वार खुला ही है, जरा देखो तो ।
हसन ने शास्त्रों में पढ़ा था। पढ़ा होगा जीसस का वचन : 'पूछो, और मिलेगा ! खटखटाओ, और खुलेगा ! ' शास्त्र से पढ़ा था: चीखो पुकारो ! आर्त तुम्हारी पुकार हो तो परमात्मा का द्वार खुलेगा । यह राबिया शास्त्र से पढ़ी हुई नहीं है । इसने देखा कि द्वार परमात्मा का कभी बंद ही नहीं। वह कहने लगी, भाई मेरे ! आंख तो खोलो ! नाहक शोरगुल मचा रहे हो! द्वार बंद कब था ? द्वार खुला ही है— अपनी आंख चाहिए !
और यहां हम सब उधार आंखों से जी रहे हैं। साधारण जीवन में भी उधार आंख से नहीं जीया जा सकता, लेकिन हम उस अनंत की यात्रा पर उधार आंखें ले कर चल पड़े हैं।
एक आदमी था, बूढ़ा हो गया— उसकी आंखें चली गईं। चिकित्सकों ने कहा, आंखें ठीक हो सकती हैं, ऑपरेशन करवाना होगा, तीन महीने विश्राम करना होगा । उस बूढ़े ने कहा, 'सार क्या ? अस्सी साल का तो हो गया। फिर आंखों की मेरे घर में कमी क्या है? आठ मेरे लड़के हैं, सोलह उनकी आंखें; आठ उनकी बहुएं हैं, सोलह उनकी आंखें; मेरी पत्नी भी अभी जिंदा है, दो उसकी आंखें - ऐसे चौंतीस आंखें मेरे घर में हैं। दो आंखें न हुईं, क्या फर्क पड़ता है ?' दलील तो जंचती है। लड़कों की आंखें, बहुओं की आंखें, पत्नी की आंखें- चौंतीस आंखें घर में हैं। न हुईं छत्तीस, चौतीस हुईं, क्या फर्क पड़ता है? दो आंख के कम होने से क्या बिगड़ता है ? इतने तो सहारे हैं !
नहीं, वह राजी न हुआ ऑपरेशन को । और कहते हैं, उसी रात उस घर में आग लग गई। चौंतीस आंखें बाहर निकल गईं; बूढ़ा, अंधा बूढ़ा टटोलता, आग झुलसता, चीखता-चिल्लाता रह गया । लड़के भाग गए, पत्नी भाग गई, बहुएं भाग गईं। जब घर में आग लगी हो तो याद किसे रह जाती है किसी और की ! याद आती है बाहर जा कर । बाहर जा कर वे सब सोचने लगे, अब क्या करें ? बूढ़े पिता को कैसे बचाएं? लेकिन जब आग लगी तो आंखें अपने पैरों को ले कर बाहर भाग गईं। दूसरे की याद कहां ऐसे संकट के क्षण में! समय कहां, सुविधा कहां कि दूसरे की याद कर लें ! दूसरा तो सुविधा में, समय हो तो हम सोच पाते हैं। जब अपने प्राणों पर बनी हो तो कौन किसकी सोच पाता है!
वह बूढ़ा चीखने-चिल्लाने लगा और तब उसे याद आई कि मैंने बड़ा गलत तर्क दिया। आंख अपनी ही हो तो ही समय पर काम आती है।
और इस जीवन के भवन में आग लगी है। यहां हम रोज जल रहे हैं। यहां अपनी ही आंख काम आएगी, यहां दूसरे की आंख काम नहीं आ सकती। फिर बाहर की दुनिया में तो शायद दूसरे की आंख काम भी आ जाए, लेकिन भीतर की दुनिया में तो दूसरे का प्रवेश ही नहीं है; वहां तो तुम नितांत अकेले हो। वहां तो तुम्हीं हो, और कोई न कभी गया है और न कभी कोई जा सकता है। तुम्हारे अंतरतम में तुम्हारे अतिरिक्त किसी की गति नहीं है; वहां तो अपनी आंख होगी तो ही काम पड़ेगी।
इसलिए मैं कहता हूं कि ज्ञान और ज्ञान में भेद है।
क को जो हुआ वह असली ज्ञान है । वह पांडित्य नहीं है । वह प्रज्ञा की अभिव्यक्ति है। जल
जब जागो तभी सवेरा
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