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तर्क-निष्ठता तुम्हारी क्रांति में सहयोगी बने, तुम्हें रूपांतरित करे—इतना खयाल रखना। जहां तर्क पत्थर बनने लगे और क्रांति में रुकावट डालने लगे, वहां तर्क को छोड़ना, क्रांति को मत छोड़ना। मैं कह सकता हूं, अंतिम निर्णय तुम्हारे हाथ में है।
___ अक्ल की सतह से कुछ और उभर जाना था, - इश्क को मंजिले-परस्ती से गुजर जाना था;
ये तो क्या कहिए, चला था मैं कहां से हमदम,
मुझको ये भी न था मालूम, किधर जाना था। बुद्धि को कुछ भी पता नहीं है कि कहां जाना है! इसलिए बुद्धि कहीं जाती ही नहीं; घूमती रहती है कोल्हू के बैल की तरह। कोल्हू का बैल देखा? आंख पर पट्टी बंधी रहती, घूमता रहता है! आंख पर पट्टी बंधी होने से उसे लगता है कि चल रहे हैं, कहीं जा रहे हैं, कुछ हो रहा है। __तुमने देखा, तुम कैसे घूम रहे हो! वही सुबह, वही उठना, वही दिन का काम, वही सांझ, वही रात, वही सुबह फिर, फिर वही सांझ-यूं ही उम्र तमाम होती है, फिर सुबह होती है, फिर शाम होती है! एक कोल्हू के बैल की तरह तुम घूमते चले जाते हो।।
ये तो क्या कहिए, चला था मैं कहां से हमदम, मुझको ये भी न था मालूम, किधर जाना था। अक्ल की सतह से कुछ और उभर जाना था,
इश्क को मंजिले-परस्ती से गुजर जाना था। जब तुम बुद्धि की सतह से थोड़ा ऊपर उठते हो, तब आकाश में उठते हो, पृथ्वी छूटती है; सीमा छूटती है, असीम आता है; बंधन गिरते, मोक्ष की थोड़ी झलक मिलती।
इश्क को मंजिले-परस्ती से गुजर जाना था। फिर एक ऐसी घड़ी भी आती है-पहले तो बुद्धि से तुम हृदय की तरफ आते हो—फिर एक ऐसी घड़ी आती है, हृदय से भी गहरे जाते हो।
___ इश्क को मंजिले-परस्ती से गुजर जाना था। फिर प्रेम, प्रेम-पात्र से भी मुक्त हो जाता है। फिर भक्त, भगवान से भी मुक्त हो जाता है। फिर पूजक, पूजा से भी मुक्त हो जाता है।
तो पहले तो तर्क से चलना है प्रेम की तरफ और फिर प्रेम से चलना है शून्य की तरफ। उस महाशून्य में ही हमारा घर है।
बुद्धि में तुम हो, हृदय में तुम्हें होना है। इसलिए बुद्धि से मैं शुरू करता हूं, हृदय की तरफ तुम्हें ले चलता हूं। जो हृदय में पहुंच गए हैं, उनको वहां भी नहीं बैठने देता। उनको कहता हूं : चलो आगे, और आगे!
हर नये क्षण को पुराने की तरह एक परिचित प्रीति गाने की तरह वक्ष में भर, तार पर तार बोते चलो! और बीती रागिनी रीते नहीं
हरि ॐ तत्सत
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