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________________ को मालिक के सिंहासन पर विराजमान करो। नौकर बहुत दिन सिंहासन पर बैठ चुका है। बुद्धि के लिये तुम नहीं जीते हो; जीते तो हृदय के लिए हो। इसलिए तो बुद्धि से कभी भराव नहीं आता। कितने ही बड़े गणितज्ञ हो जाओ, उससे थोड़े ही हृदय को शांति मिलेगी! और कितने ही बड़े तर्कनिष्ठ विचारक हो जाओ, उससे थोड़े ही प्रफुल्लता जगेगी! और कितना ही दर्शन-शास्त्र इकट्ठा कर लो, उससे थोड़े ही समाधि बनेगी! हृदय मांगेगा प्रेम, हृदय मांगेगा प्रार्थना। हृदय की अंतिम मांग तो समाधि की रहेगी, कि लाओ समाधि, लाओ समाधि! बुद्धि ज्यादा से ज्यादा समाधि के संबंध में तर्कजाल ला सकती है, समाधि के संबंध में सिद्धांत ला सकती है; लेकिन सिद्धांतों से क्या होगा? कोई भूखा बैठा है, तुम पाक-शास्त्र देते हो उसे कि इसमें सब लिखा है, पढ़ लो, मजा करो! वह पढ़ता भी है कि भूख लगी है, चलो शायद यही काम करे। बड़े-बड़े सुस्वादु भोजनों की चर्चा है-कैसे बनाओ, कैसे तैयार करो-मगर इससे क्या होगा? वह पूछता है कि पाक-शास्त्र से क्या होगा? भोजन चाहिए। भूखे को भोजन चाहिए। प्यासे को पानी चाहिए। तुम प्यासे आदमी को लिख कर दे दो-उसको लगी है प्यास और तुम लिख कर दे दो 'एच टू ओ'—यह पानी का सूत्र! वह आदमी कागज लेकर बैठा रहेगा, क्या होगा? ऐसे ही तो लोग राम-राम लिए बैठे हैं। सब मंत्र ‘एच टू ओ' जैसे हैं। निश्चित ही पानी आक्सीजन और हाइड्रोजन से मिल कर बनता है, लेकिन कागज पर 'एच टू ओ' लिखने से प्यास नहीं बुझती। तर्क से समझो, हृदय से पीयो। तर्क का सहारा ले लो, लेकिन बस सहारा ही समझना; उसी को सब कुछ मत मान लेना। मालिक हृदय को रहने दो। प्रेम और प्रार्थना में, पूजा और अर्चना में, ध्यान और समाधि में, बुद्धि बाधा न दे, इसका स्मरण रखना। सहयोगी जितनी बन सके, उतना शुभ है। इसलिए तो तर्क के सहारे तुमसे बोलता हूं, कि तुम्हारी बुद्धि को फुसला लूं, राजी कर लूं। तुम दो कदम राजी होकर हृदय की तरफ चले जाओ। वहां थोड़ा-सा भी स्वाद आ जायेगा, तो मगन हो जाओगे। फिर तुम खुद ही बुद्धि की चिंता छोड़ दोगे। स्वाद जब आ जाता है तो शब्दों की कौन फिक्र करता है! 'लेकिन मुझे तो भगवान श्री, आपके प्रवचन बहुत-बहुत तर्कपूर्ण लगते हैं।' वे तर्कपूर्ण हैं। मेरी पूरी चेष्टा है कि तुम से जो कहूं वह तर्कपूर्ण हो, ताकि तुम राजी हो सको मेरे साथ चलने को। एक बार राजी हो गए, फिर तो गड्ढे में गए, फिर तो तुम्हारी पटरी उतार दूंगा! एक बार राजी भर हो जाओ, एक बार हाथ में हाथ आ जाये, फिर कोई चिंता नहीं है। एक दफे तुम्हारा हाथ हाथ में आ गया तो तुम ज्यादा देर हाथ के बाहर न रहोगे। पहुंचा पकड़ा, फिर कलाई पकड़ ली, फिर...आदमी गया! ___ तो तर्क से तो पहला संबंध बनाता हूं, क्योंकि वहां तुम जी रहे हो; वहीं से संबंध बन सकता है; वहां तुम हो। इसलिए मेरे पास नास्तिक भी आ जाते हैं; मुझसे नास्तिक भी राजी हो जाते हैं। मुझसे नास्तिक को कोई झगड़ा नहीं होता, क्योंकि मैं नास्तिक की भाषा बोलता हूं। मगर वह तो जाल है। वह भाषा तो जाल है। वह तो ऐसे ही है जैसे हम मछली पकड़ने जाते हैं, तो कांटे पर आटा लगा देते हैं। वह तो आटा है। अगर बचना हो तो आटे ही से बच जाना, क्योंकि आटा मुंह में लिया, तब पता चलेगा कि यह तो कांटा था। 252 अष्टावक्र: महागीता भाग-1
SR No.032109
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages424
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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