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दो दिखाई पड़ता हूं, फिर भी अद्वैत हूं। वह दो दिखाई पड़ना सिर्फ ऊपर-ऊपर है। जैसे एक वृक्ष बहुत-सी शाखाएं दिखाई पड़ती हैं। अगर तुम शाखायें गिनो, तो अनेक हैं; अगर तुम वृक्ष के नीचे उतरने लगो तो पीड़ में आकर एक हो जाती हैं। ऐसे ही ये जो अनेक रूप दिखता है संसार, वह भी अपने मूल में आकर एक हो जाता है। यह एक का ही फैलाव है।
'मैं आश्चर्यमय हूं। मुझको नमस्कार है। मैं देहधारी होता हुआ भी अद्वैत हूं। न कहीं जाता हूं, न कहीं आता हूं, और संसार को घेर कर स्थित हूं।'
सुनो ! जनक कह रहे हैं कि संसार को घेर कर स्थित हूं, संसार को मैंने घेरा है! मैं संसार की परिभाषा हूं! मैं असीम हूं ! संसार मेरे भीतर है !
साधारणतः हम देखते हैं, हम संसार के भीतर हैं। यह तो अपूर्व क्रांति हुई। यह तो गेस्टाल्ट पूरा बदला। जनक कहते हैं, संसार मेरे भीतर है! जैसे आकाश में बादल उठते हैं, और खो जाते हैं, ऐसे युग मुझमें आते और विलीन हो जाते हैं। मैं निराकार, साक्षी - रूप, द्रष्टा - मात्र, सब को घेर कर खड़ा हूं!
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इसे तुम समझो। बच्चे थे तुम कभी, तब एक आकार घिरा था तुम्हारे आकाश में - बचपन का । फिर तुम जवान हो गए, वह रूप खो गया। फिर दूसरा बादल घिरा । नया आकार तुमने लिया, तुम जवान हो गए! बच्चे थे, तब तुम्हें कामवासना का कोई भी पता न था । कोई समझाता तो भी तुम समझ न पाते। फिर तुम जवान हुए, नई वासना उठी, वासना ने नये वस्त्र पहने, नया रंग खिला, तुम्हारे जीवन ने नया ढांचा पकड़ा। फिर तुम बूढ़े होने लगे। जवानी भी गई ! जवानी का शोरगुल भी गया ! वह वासना भी बह गई! अब तुम्हें हैरानी होती है कि कैसे तुम उन वासनाओं में उतर सके ! अब तुम चकित होकर सोचते हो कि मैं ऐसा मूढ़ था, कि मैं ऐसा अज्ञानी था !
हर बूढ़े को एक न एक दिन, अगर वह सच में जीवन को जरा भी देखने में सफल हो पाया है— तो यह बात आश्चर्य से भरती है, कि मैं कैसी-कैसी चीजों के पीछे भागा – धन, पद, मोह, स्त्री-पुरुष, कैसी-कैसी चीजों के पीछे भागा ! क्या-क्या खोजता फिरा ! मैं खुद खोजता फिरा ! भरोसा नहीं आता कि मैं और ऐसे सपने में हो सकता था !
अरब में एक कहावत है कि अगर जवान आदमी रो न सके तो जवान नहीं; और अगर बूढ़ा आदमी हंस न सके तो बूढ़ा नहीं। जवान आदमी अगर रो न सके, तो जवान नहीं; क्योंकि जो रो नहीं सकता, जो अभी आंसू नहीं बहा सकता, उसका भाव कुंठित है, उसके जीवन में तरंग नहीं है, मौज नहीं है। जो पीड़ित नहीं हो सकता, वह जवान नहीं है, पथरीला है; उसका हृदय खिला नहीं, अनखिला रह गया है। और बूढ़ा, जो हंस न सके-पूरे जीवन पर और अपने पर, कि कैसी मूढ़ता है ! कैसा मजाक है !- - तो बूढ़ा नहीं । बूढ़ा वही है, जो हंस सके सारी मूढ़ता पर, अपनी और सबकी, और कहे खूब मजाक चल रहा है! लोग पागल हुए भागे जा रहे हैं - उन चीजों के पीछे, जिनका कोई भी मूल्य नहीं। उसे अब दिखाई पड़ता है, कोई भी मूल्य नहीं है !
कभी तुम जवान, कभी तुम बूढ़े ! कभी बादल एक रूप लेता, कभी दूसरा, कभी तीसरा ! लेकिन तुमने खयाल किया कि भीतर तुम एक ही हो ? जिसने देखा था बचपन, उसी ने जवानी देखी। जिसने देखी जवानी, उसी ने बुढ़ापा देखा। तुम द्रष्टा हो ! वह जो देखने वाला पीछे खड़ा है, वह वही का वही
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अष्टावक्र: महागीता भाग-1