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________________ कुछ न होता तो खुदा होता। डुबोया मुझको होने ने न होता मैं तो क्या होता? डुबोया मुझको होने ने! हम कहेंगे रामतीर्थ ने आत्महत्या कर ली। रामतीर्थ कहेंगे, डुबोया मुझको होने ने! यह तो डूब कर गंगा में मैं पहली दफे हुआ। जब तक था, तब तक डूबा था। न था कुछ तो खुदा था, कुछ न होता तो खुदा होता। डुबोया मुझको होने ने न होता मैं तो क्या होता? खुदा होते! परमात्मा होते! यह जो होने की सीमा है, इस सीमा को जब वस्त्र की भांति कोई उतारकर रख देता है, तो सत्य के दर्शन होते हैं। जैसे सांप अपनी केंचुली से निकल जाता है सरक कर, ऐसी ही घटना जनक को घटी। अष्टावक्र ने कैटेलिटिक की तरह काम किया होगा। वैज्ञानिक कैटेलिटिक एजेंट की बात करते हैं। वे कहते हैं कि कुछ तत्व किन्हीं घटनाओं में सक्रिय रूप से भाग नहीं लेते, लेकिन उनकी मौजूदगी के बिना घटना नहीं घटती। तुमने देखा, वर्षा में बिजली चमकती है! वैज्ञानिक कहते हैं कि आक्सीजन और हाइड्रोजन के मिलने से पानी बनता है, लेकिन हाइड्रोजन और आक्सीजन का मिलन तभी होता है जब बिजली मौजूद हो। अगर बिजली मौजूद न हो तो मिलन नहीं होता। यद्यपि बिजली कोई भी हिस्सा नहीं लेती, हाइड्रोजन और आक्सीजन के मिलने में बिजली कोई भी हाथ नहीं बटाती-सिर्फ मौजूदगी.... ! इस तरह की मौजूदगी को वैज्ञानिकों ने नाम दिया है : कैटेलिटिक एजेंट। गुरु कैटेलिटिक एजेंट है। वह कुछ करता नहीं, पर उसकी बिना मौजूदगी के कुछ होता भी नहीं। उसकी मौजूदगी में कुछ हो जाता है। यद्यपि करता वह कुछ भी नहीं, लेकिन सिर्फ उसकी मौजूदगी! इसे समझना। सिर्फ उसकी ऊर्जा तुम्हें घेरे रहती है। उस ऊर्जा के घिरोव में तुममें बल उत्पन्न हो जाता है-बल तुम्हारा है। गीत फूटने लगते हैं-गीत तुम्हारे हैं। घोषणाएं घटने लगती हैं—घोषणाएं तुम्हारी हैं। लेकिन गुरु की मौजूदगी के बिना शायद घटतीं भी नहीं। अष्टावक्र की मौजूदगी ने कैटेलिटिक एजेंट का काम किया। देखकर उस सौम्य, शांत, परम अवस्था को, जनक को अपना भूला घर याद आ गया होगा, झांक कर उन आंखों में, देखकर अपरंपार विस्तार, अपनी भूली-बिसरी संभावना स्मरण में आ गई होगी। सुनकर अष्टावक्र के वचन–सत्य में पगे, अनुभव में पगे-स्वाद जग गया होगा। कहते हैं, एक व्यक्ति ने सिंह पाल रखा था। छोटा-सा बच्चा था, आंखें भी न खुली थीं-तब उसे घर ले आया था। उस सिंह ने कभी मांसाहार न किया था, खून का उसे कोई स्वाद भी न था। वह शाकाहारी सिंह था। शाक-सब्जी खाता, रोटी खाता। उसे पता ही न था। पता का कोई कारण भी न था। लेकिन एक दिन यह आदमी बैठा था अपनी कुरसी पर, इसके पैर में चोट लगी थी, और खून थोड़ा-सा झलका था। सिंह भी पास में बैठा था। बैठे-बैठे उसने जीभ से वह खून चाट लिया। बस! 230 अष्टावक्र: महागीता भाग-1
SR No.032109
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages424
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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