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________________ मनुष्य-जाति ने ऐसी उदघोषणा कभी सुनी नहीं : 'अपने को ही नमस्कार!' तुम कहोगे, यह तो अहंकार की हद हो गयी। दूसरे से कहते, तब भी ठीक था, यह अपने ही पैर छू लेना...! ऐसा उल्लेख है रामकृष्ण के जीवन में कि एक चित्रकार ने रामकृष्ण का चित्र उतारा। वह जब चित्र लेकर आया, तो रामकृष्ण के भक्त बड़े संकोच में पड़ गये; क्योंकि रामकृष्ण उस चित्र को देख-देख कर उसके चरण छूने लगे। वह उन्हीं का चित्र था। उसे सिर से लगाने लगे। किसी भक्त ने कहा, परमहंसदेव, आप पागल तो नहीं हो गए हैं? यह चित्र आपका है। रामकृष्ण ने कहा, खूब याद दिलायी, मुझे तो चित्र समाधि का दिखा। जब मैं समाधि की अवस्था में रहा होऊंगा, तब उतारा गया। खूब याद दिलायी, अन्यथा लोग मुझे पागल कहते। मैं तो समाधि को नमस्कार करने लगा। यह चित्र समाधि का है, मेरा नहीं। लेकिन जिन्होंने देखा था, उन्होंने तो यही समझा होगा न कि हुआ पागल आदमी। अपने ही चित्र के पैर छूने लगा! अपने चित्र को सिर से लगाने लगा! अब और क्या पागलपन होगा? अहंकार की यह तो आखिरी बात हो गयी, इसके आगे तो अहंकार का कोई शिखर नहीं हो सकता। जनक इन वचनों में मस्ती में बोल रहे हैं। एक स्वाद उत्पन्न हुआ है! मगन हो गये हैं! नाच सकते होते मीरा जैसे, तो नाचे होते। गा सकते होते चैतन्य जैसे, तो गाते। बांसुरी बजा सकते कृष्ण जैसी, तो बांसुरी बजाते। हर व्यक्ति की अलग-अलग संभावना है अभिव्यक्ति की। जनक सम्राट थे, सुसंस्कृत पुरुष थे, सुशिक्षित पुरुष थे, प्रतिभावान थे, नवनीत थे प्रतिभा के-तो उन्होंने जो वचन कहे वे मनुष्य-जाति के इतिहास में स्वर्ण-अक्षरों में लिखे जाने योग्य हैं। इन वचनों को समझने के लिए तुम अपने अर्थ बीच से हटा देना। करना है हमें कुछ दिन संसार का नजारा इंसान का जीवन तो दर्शन का झरोखा है ये अक्ल भी क्या शै है जिसने दिले-रंगी को हर काम से रोका है हर बात पे टोका है आरास्ता ए मानी तखईल है शायर की लफ्जों में उलझ जाना फन काफिया-गो का है ये अक्ल भी क्या शै है जिसने दिले-रंगी को हर काम से रोका है, मेरा मुझको नमस्कार 223
SR No.032109
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages424
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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