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________________ धुंध ढंकी, कितनी गहरी वापिका तुम्हारी, लघु अंजुली हमारी! प्रभु के सामने तो हमारे हाथ सदा छोटे ही पड़ जाते हैं। हमारी अंजुली छोटी है! धुंध ढंकी कितनी गहरी वापिका तुम्हारी, लघु अंजुली हमारी! जिनके हृदय में भी प्रेम है, उन्हें सदा ही लगेगा हमारी अंजुली बड़ी छोटी है। पूछा है जया ने'हे प्रिय प्यारे, प्रणाम ले लो इन आंसुओं को मुकाम दे दो तुमने तो भर दी है झोली फिर भी मैं कोरी की कोरी।' यह कुछ ऐसा भराव है, कि इसमें आदमी और-और शून्य होता चला जाता है। यह शून्य का ही भराव है। यह शून्य से ही भराव है। तुम्हें कोरे करने का ही मेरा प्रयास है। अगर तुम कोरे हो गये तो मैं सफल हो गया। अगर तुम भरे रह गये तो मैं असफल हो गया। तुम जब बिलकुल कोरे हो जाओगे और तुम्हारे भीतर कुछ भी न रह जायेगा-कोई रेखा, कोई शब्द, कोई कूड़ा-कचरा-तुम्हारी उस शून्यता में ही परमात्मा प्रगट होगा। जया से कहूंगा जा, आत्मा जा कन्या वधु का, उसकी अनुगा वह महाशून्य ही अब तेरा पथ वह महाशून्य ही अब तेरा पथ लक्ष्य अन्य जल पालक पति आलोक धर्म तुझको वह एकमात्र सरसायेगा ओ आत्मा री! त गई वरी ओ संपृक्ता ओ परिणीता, महाशून्य के साथ भांवरे तेरी रची गईं। महाशून्य के साथ भांवरें तेरी रची गईं! यह रिक्त होना, यह कोरा होते जाना—महाशून्य के साथ भांवरों का रच जाना है। नाचते, उस शून्य के महाभाव को प्रगट करते, गुनगुनाते, मस्त, खोते जाना है! - 216 अष्टावक्र: महागीता भाग-1
SR No.032109
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages424
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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