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________________ धरती पर इन्सां के लिए हैं, फैले मायाजाल कई। अपनी-अपनी किस्मत है, और अपनी-अपनी फितरत है, खुशियों से पामाल कई हैं, गम से मालामाल कई। इंसानों का काल पड़ा है, वक्त कड़ा है दुनिया पर, ऐसे कड़े कब वक्त पड़े थे, यूं तो पड़े हैं काल कई। दिल की दौलत कम मिलती है, दौलत तो मिलती है बहुत, दिल उनके मुफलिस थे हमने देखे अहलेमाल कई। कितने मंजर पिनहां हैं, मदहोशी की गहराई में, होश का आलम एक मगर, मदहोशी के पाताल कई। कितने मंजर पिनहां हैं मदहोशी की गहराई में! यह जो हमारी मूर्छा है, इसमें कितने दृश्य छिपे हैं-दृश्य के बाद दृश्य; परदे के पीछे परदे; कहानियों के पीछे कहानियां! यह जो हमारी मूर्छा है, इसमें कितने पाताल छिपे हैं—धन के, पद के, प्रतिष्ठा के, सपनों के! जाल बिछे हैं! . कितने मंजर पिनहीं हैं मदहोशी की गहराई में, __होश का आलम एक मगर, मदहोशी के पाताल कई। लेकिन जो होश में आ गया है, उसका आलम एक है, उसका स्वभाव एक है, उसका स्वरूप एक है, उसका स्वाद एक है! बुद्ध ने कहा है : 'जैसे चखो सागर को कहीं भी तो खारा है, ऐसा ही तुम मुझे चखो तो मैं सभी जगह से होशपूर्ण हूं। मेरा एक ही स्वाद है—होश।' वही स्वाद अष्टावक्र का है। कर्ता नहीं, भोक्ता नहीं-साक्षी! तो यह तो पूछो ही मतः कैसे! क्योंकि कैसे' में तो कर्ता आ गया, भोक्ता आ गया तो तुम . चूक गये; अष्टावक्र की बात चूक गये। अष्टावक्र इतना ही कहते हैं : जो भी है, उसे देखो; साक्षी बनो। बस देखो! अहंकार है तो अहंकार को देखो; करने का क्या है? सिर्फ देखो-और देखने से क्रांति घटित होती है। तुम समझे बात? बात थोड़ी जटिल है, लेकिन जटिल इतनी नहीं कि समझ में न आये। बात सीधी-साफ भी है। अष्टावक्र कह रहे हैं कि तुम सिर्फ देखो, तो देखने में कर्ता तो रह नहीं जाता, मात्र साक्षी रह जाते हो। कर्ता हटा कि कर्ता से जिन-जिन चीजों को रस मिलता था, बल मिलता था, वे सब गिर जायेंगी। बिना कर्ता के धन की दौड़ कहां? पद की दौड़ कहां? बिना कर्ता के अहंकार कहां? वे सब अपने-आप गिरने लगेंगे। एक बात साध लो—साक्षी; शेष कुछ भी करने को नहीं है। शेष सब अपने से हो जायेगा। शेष सदा होता ही रहा है। तुम नाहक ही बीच-बीच में खड़े हो जाते हो। ___ मैंने सुना है, एक हाथी एक पुल पर से गुजरता था। हाथी का वजन-पुल कंपने लगा! एक मक्खी उसकी सूंड़ पर बैठी थी। जब दोनों उस पार हो गये, तो मक्खी ने कहा, 'बेटा! हमने पुल को बिलकुल हिला दिया।' हाथी ने कहा, 'देवी! मुझे तेरा पता ही न था, जब तक तू बोली न थी कि तू भी है।' 204 अष्टावक्र: महागीता भाग-1
SR No.032109
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages424
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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