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समझे। तुम कहते हो, 'तू अभी मुक्त, यहीं मुक्त'; लेकिन मैं इस 'मैं' से कैसे मुक्त होऊं?'
अष्टावक्र यह कहते हैं कि यह 'कैसे' की बात ही तब है, जब कोई मान ले कि मैं अमुक्त हूं। तो तुमने एक बात तो मान ही ली पहले ही कि मैं बंधन में हूं, अब कैसे मुक्त होऊ? अष्टावक्र कहते हैं : बंधन नहीं है-भ्रांति है बंधन की। तुम फिर कहोगे, इस भ्रांति से कैसे मुक्त होएं? तो भी तुम्हें समझ में न आया, क्योंकि भ्रांति का अर्थ ही होता है कि नहीं है, मुक्त क्या होना है? देखते ही, जागते ही-मुक्त हो। अगर तरकीबों में पड़े, तो बड़ी मुश्किल में पड़ोगे।
हर तरकीब खोटी पड़ गई,
आखिर जिंदगी छोटी पड़ गई। ऐसे अगर तरकीबों में पड़े तो तुम पाओगे कि एक जिंदगी क्या, अनेक जिंदगियां छोटी हैं। तरकीबें बहुत हैं। कितने-कितने जन्मों से तो तरकीबें साधते रहे! करने पर तुम्हारा भरोसा है, क्योंकि करने से अहंकार भरता है। __अष्टावक्र कह रहे हैं, कुछ करो मत। करने वाला परमात्मा है। जो हो रहा है, हो रहा है। तुम उसमें सम्मिलित हो जाओ। तम इतना भी मत पछो कि इस 'मैं' से कैसे मक्त होऊं? अगर यह 'मैं' हो रहा है तो होने दो; तुम हो कौन, जो इससे मुक्त होने की चेष्टा करो? तुम इसे भी स्वीकार कर लेते हो कि ठीक है, अगर यह हो रहा है, तो यही हो रहा है। तुमने तो बनाया नहीं। याद है, तुमने कब बनाया इसे? तुमने तो ढाला नहीं। तुम तो इसे लाये नहीं। तो जिसे तुम नहीं लाये, उससे तुम छूट कैसे सकोगे? जो तुमने ढाला नहीं, उसे तुम मिटाओगे कैसे? तुम कहते हो, क्या कर सकते हैं? दो आंखें मिलीं, एक नाक मिली, ऐसा यह अहंकार भी मिला। यह सब मिला है। अपने हाथ में कुछ भी नहीं। तो जो है ठीक है। 'मैं' भी सही, यह भी ठीक है। ___ इसमें रंचमात्र भी शिकायत न रखो। उस बे-शिकायत की भाव-दशा में, उस परम स्वीकार में, तुम अचानक पाओगेः गया 'मैं'! क्योंकि 'मैं' बनता ही कर्ता से है। जब तुम कुछ करते हो, तो 'मैं' बनता है।
अब तुम एक नई बात पूछ रहे हो, कि 'मैं' को कैसे मिटाऊं? तो यह मिटाने वाला 'मैं' बन जायेगा. कहीं बच न पाओगे तम। इसलिए तो विनम्र आदमी का भी अहंकार होता है और कभीकभी अहंकारी आदमी से ज्यादा बड़ा होता है।
तुमने देखा विनम्र आदमी का अहंकार! वह कहता है, मैं आपके पैर की धूल! मगर उसकी आंख में देखना, वह क्या कह रहा है! अगर तुम कहो कि आप बिलकुल ठीक कह रहे हैं, हमको तो पहले ही से पता था कि आप पैर की धूल हैं, तो वह झगड़ने को खड़ा हो जायेगा। वह यह कह नहीं रहा है कि आप भी इसको मान लो। वह तो यह कह रहा है कि आप कहो कि आप जैसा विनम्र आदमी... दर्शन हो गये बड़ी कृपा! वह यह कह रहा है कि आप खंडन करो कि 'आप, और पैर की धूल? आप तो स्वर्ण-शिखर हैं! आप तो मंदिर के कलश हैं!' जैसे-जैसे तुम कहोगे ऊंचा, वह कहेगा कि नहीं, मैं बिलकुल पैर की धूल हूं। लेकिन जब कोई कहे कि मैं पैर की धूल हूं, तुम अगर स्वीकार कर लो कि आप बिलकुल ठीक कह रहे हैं, सभी ऐसा मानते हैं कि आप बिलकुल पैर की धूल हैं, तो वह
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अष्टावक्र: महागीता भाग-1