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________________ पहला प्रश्न : मुझे लगता है कि मेरा शरीर एक पिंजड़े या बोतल जैसा है, जिसमें एक बड़ा शक्तिशाली सिंह कैद है, और वह जन्मोंजन्मों से सोया हुआ था, लेकिन आपके छेड़ने से वह जाग गया है। वह भूखा है और पिंजरे से मुक्त होने के लिए बड़ा बेचैन है। दिन में अनेक बार वह बौखला कर हुंकार मारता, गर्जन करता, और ऊपर की ओर उछलता है। उसकी हुंकार, गर्जन, और ऊपर की ओर उछलने के धक्के से मेरा रोआं- रोआं कंप जाता है, और माथे व सिर का ऊपरी हिस्सा ऊर्जा से फटने लगता है। इसके बाद एक अजीब नशे व मस्ती में डूब जाता हूं। फिर वह सिंह जरा शांत होकर कसमसाता, चहलकदमी करता व गुर्राता रहता है। और फिर कीर्तन में या आपके स्मरण से वह मस्त हो कर नाचता भी है ! अनुकंपा करके समझायें कि यह क्या हो रहा है? छा है 'योग चिन्मय' ने। पू शुभ हो रहा है! जैसा होना चाहिए, वैसा हो रहा है। इससे भयभीत मत होना। इसे होने देना । इसके साथ सहयोग करना । एक अनूठी प्रक्रिया शुरू हुई है, जिसका अंतिम परिणाम मुक्ति है। हम निश्चित ही शरीर में कैद हैं। सिंह पिंजड़े में बंद है ! बहुत समय से बंद है, इसलिए सिंह भूल ही गया है अपनी गर्जना को । बहुत समय से बंद है, और सिंह सोचने लगा है कि यह पिंजड़ा ही उसका घर है । इतना ही नहीं, सोचने लगा है कि मैं पिंजड़ा ही हूं। देहोऽहम् ! मैं शरीर ही हूं ! । चोट करनी है ! उसी के लिए तुम मेरे पास कि मैं चोट करूं और तुम जगो । ये वचन जो मैं तुमसे बोल रहा हूं, सिर्फ वचन नहीं हैं; इन्हें तीर समझना; ये छेदेंगे तुम्हें। कभी नार भी हो जाओगे मुझ पर, क्योंकि सब शांत चल रहा था, सुविधापूर्ण था, और बेचैनी खड़ी हो गई। लेकिन जागने का और कोई उपाय नहीं; पीड़ा से गुजरना होगा। जब भीतर की ऊर्जा उठेगी, तो शरीर राजी नहीं होता उसे झेलने को; शरीर उसे झेलने को बना नहीं है। शरीर की सामर्थ्य बड़ी छोटी है; ऊर्जा विराट है। जैसे कोई किसी छोटे आंगन में पूरे आकाश को बंद करना चाहे । तो जब ऊर्जा जगेगी, तो शरीर में कई उत्पात शुरू होंगे। सिर फटेगा । कभी-कभी तो ऐसा होता है कि पूर्ण ज्ञान के बाद भी शरीर में उत्पात जारी रहते हैं। ज्ञान की घटना के पहले तो बिलकुल स्वाभाविक हैं, क्योंकि शरीर राजी नहीं है। जैसे जिस बिजली के तार में सौ कैंडल की बिजली दौड़ाने की क्षमता हो, उसमें हजार कैंडल की बिजली दौड़ा दो, तो तार झनझना जायेगा, जल उठेगा ! ऐसे ही जब तुम्हारे भीतर ऊर्जा जगेगी- जो सोयी पड़ी थी - प्रगट होगी, तो तुम्हारा शरीर उसके लिए राजी नहीं है। शरीर तुम्हारा भिखमंगा होने के लिए राजी है, सम्राट होने को राजी नहीं है । शरीर की सीमा
SR No.032109
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages424
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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