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कामनाओं के सहारे आदमी जीता चला जाता है।
ध्यान रखना, धन नहीं बांधता, धन की आकांक्षा बांधती है; पद नहीं बांधता, पद की आकांक्षा बांधती है। प्रतिष्ठा नहीं बांधती, प्रतिष्ठा की आकांक्षा बांधती है।
जनक के पास सब था। देख लिया सब । तैयार ही खड़े थे जैसे, कि कोई जरा-सा इशारा कर दे, जाग जाएं। सब सपने व्यर्थ हो चुके थे। नींद टूटी-टूटी होने को थी ।
इसीलिए मैं कहता हूं, अष्टावक्र को परम शिष्य मिला ।
जनक ने कहा: 'मैं निर्दोष हूं, शांत हूं, बोध हूं, प्रकृति से परे हूं! आश्चर्य ! अहो ! कि मैं इतने काल तक मोह के द्वारा बस ठगा गया हूं!'
उतरने लगी किरण । अहो निरंजनः । आश्चर्य !
सुना अष्टावक्र को कि तू निरंजन है, निर्दोष है, सुनते ही पहुंच गई किरण प्राणों की आखिरी गहराई तक; जैसे सूई चुभ जाए सीधी ।
अहो निरंजनः शांतो बोधोऽहं प्रकृतेः परः ।
आश्चर्य, क्या कहते हैं आप? मैं निर्दोष हूं! शांत हूं ! बोध हूं ! प्रकृति से परे हूं! आश्चर्य कि इतने काल तक मैं मोह के द्वारा बस ठगा गया हूं।
एतावतमहं कालं मोहेनैव विडंबितः ।
चौंक गए जनक। जो सुना, वह कभी सुना नहीं था । अष्टावक्र में जो देखा, वह कभी देखा नहीं था । न कानों सुना, न आंखों देखा - ऐसा अपूर्व प्रगट हुआ । अष्टावक्र ज्योतिर्मय हो उठे ! उनकी आभा, उनकी आभा के मंडल में जनक चकित हो गए : 'अहो, बोध हुआ कि मैं निरंजन हूं!' एकदम भरोसा नहीं आता, विश्वास नहीं आता।
सत्य इतना अविश्वसनीय है, क्योंकि हमने असत्य पर इतने लंबे जन्मों तक विश्वास किया है। सोचो, अंधे की अचानक आंख खुल जाए तो क्या अंधा विश्वास कर सकेगा कि प्रकाश है, रंग हैं, ये हजार-हजार रंग, ये इंद्रधनुष, ये फूल, ये वृक्ष, ये चांद-तारे? एकदम से अंधे की आंख खुल जाए तो वह कहेगा, अहो, आश्चर्य है ! मैं तो सोच भी न सकता था कि यह है । और यह है । और मैंने तो इसका कभी सपना भी न देखा था ।
प्रकाश तो दूर, अंधे आदमी को अंधेरे का भी पता नहीं होता। तुम साधारणतः सोचते होओगे कि अंधा आदमी अंधेरे में रहता है, तो तुम गलत सोचते हो । अंधेरा देखने के लिए भी आंख चाहिए। तुम आंख बंद करते हो तो तुम्हें अंधेरा दिखाई पड़ता है, क्योंकि आंख खोल कर तुम प्रकाश को जानते हो। लेकिन जिसकी कभी आंख ही नहीं खुली, वह अंधेरा भी नहीं जानता, प्रकाश तो दूर, अंधेरे से भी पहचान नहीं है। कोई उपाय नहीं अंधे के पास कि सपना देख सके इंद्रधनुषों का । लेकिन जब आंख खोल कर देखेगा, तो यह सारा जगत अविश्वसनीय मालूम होगा, भरोसा न आएगा।
जनक को भी एक धक्का लगा है, एक चौंक पैदा हुई! अचंभे से भर गए हैं! कहने लगे, 'अहो, मैं निर्दोष ! '
सदा से अपने को दोषी जाना और सदा से धर्मगुरुओं ने यही कहा कि तुम पापी हो ! और सदा से पंडित-पुरोहितों ने यही समझाया कि धोओ अपने कर्मों के पाप । किसी ने भी यह न कहा कि
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अष्टावक्र: महागीता भाग-1