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________________ मिलती है कि भोग के द्वारा ही आदमी भोग से मुक्त होता है। सम्राट को एक बात तो दिखाई पड़ जाती है कि धन में कुछ भी नहीं है, क्योंकि धन का अंबार लगा है और भीतर शून्य है, खालीपन है। सुंदर स्त्रियों का ढेर लगा है, और भीतर कुछ भी नहीं है। सुंदर महल हैं, और भीतर सन्नाटा है, रेगिस्तान है। जब सब होता है तो स्पष्ट दिखाई पड़ने लगता है कि कुछ भी नहीं है। जब कुछ भी नहीं होता तो आदमी आशा के सहारे जीता है। आशा से छूटना बहुत मुश्किल है। क्योंकि आशा परखने का कोई उपाय नहीं है। गरीब आदमी सोचता है, कल धन मिलेगा तो सुख से जीऊंगा । अमीर आदमी को धन मिल चुका है, अब आशा का कोई उपाय नहीं । इसीलिए जब भी कोई समाज संपन्न होता है तो धार्मिक होता है। आश्चर्यचकित मत होना, अगर अमरीका में धर्म की हवा जोर से फैलनी शुरू हुई है। यह सदा से हुआ है। जब भारत संपन्न था - अष्टावक्र के दिनों में संपन्न रहा होगा, बुद्ध के दिनों में संपन्न था, महावीर के दिनों में संपन्न था— जब भारत अपनी संपन्नता के शिखर पर था तब योग ने बड़ी ऊंचाइयां लीं, तब अध्यात्म ने आखिरी उड़ान भरी। क्योंकि तब लोगों को दिखाई पड़ा कि कुछ भी सार नहीं; सब मिल जाए तो भी कुछ सार नहीं । दीन-दरिद्र होता है देश, तब बहुत कठिन होता है । मैं यह नहीं कहता हूं कि गरीब आदमी मुक्त नहीं हो सकता। गरीब आदमी मुक्त हो सकता है। गरीब आदमी धार्मिक हो सकता है। लेकिन गरीब समाज धार्मिक नहीं हो सकता । व्यक्ति तो अपवाद हो सकते हैं। उसके लिए बड़ी प्रगाढ़ता चाहिए । थोड़ा तुम सोचो। धन हो तो देख लेना कि धन व्यर्थ है, बहुत आसान है; धन न हो तो देख लेना कि धन व्यर्थ है, जरा कठिन है— अति कठिन है । जो नहीं है उसकी व्यर्थता कैसे परखो ? तुम्हारे हाथ में सोना हो तो परख सकते हो कि सही है कि खोटा है। हाथ में सोना न हो, केवल सपने में हो, सपने का सोना कसने को तो कोई कसौटी बनी नहीं। वास्तविक सोना हो तो कसा जा सकता है। गरीब आदमी का धर्म वास्तविक धर्म नहीं होता। इसलिए गरीब आदमी जब मंदिर जाता है धन मांगता है, पद मांगता है, नौकरी मांगता है। बीमारी है तो बीमारी कैसे ठीक हो जाए, यह मांगता बेटे को नौकरी नहीं लगती तो नौकरी कैसे लग जाए, यह मांगता है। मंदिर भी एंप्लायमेंट एक्सचेंज रह जाता है। मंदिर में भी प्रेम की और प्रार्थना की सुगंध नहीं उठती । अस्पताल जाना था, मंदिर आ गया है। नौकरी दिलाने वाले दफ्तर जाना था, मंदिर आ गया है। गरीब आदमी मंदिर में भी वही मांगता रहता है जो संसार में उसे नहीं मिल रहा है। जिसका अभाव संसार में है, हम वही मांगते हैं। लेकिन, अगर तुम्हारे जीवन में सब हो या तुममें इतनी प्रतिभा हो, या तुममें इतनी मेधा हो तुम केवल विचार करके जाग सको और देख सको कि सब होगा तो भी क्या होगा ? दूसरों के पास धन है, उन्हें क्या हुआ है ? स्वयं के पास न भी हो तो फिर प्रतिभा चाहिए कि तुम देख सकोः जो महलों में रह रहे हैं, उन्हें क्या हुआ है? उनकी आंखों में तरंगें हैं आनंद की ? उनके पैरों में नृत्य है ? उनके आसपास गंध है परमात्मा की ? जब उनको नहीं हुआ तो तुम्हें कैसे हो जाएगा? लेकिन यह थोड़ा कठिन है। अधिक लोग तो ऐसे हैं कि उनके पास खुद ही धन होता है तो नहीं दिखाई पड़ता है कि धन व्यर्थ 172 अष्टावक्र: महागीता भाग-1
SR No.032109
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages424
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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