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________________ सब पिघल जातीं, ओट पातीं एक स्वप्नातीत रूपातीत पुनीत गहरी नींद की उसी में से तू बढ़ा कर हाथ सहसा खींच लेता है, गले मिलता है ! छिपा है परमात्मा तुम्हारे ही भीतर । उतरो थोड़ा । छोड़ो मूर्तियों को, विचारों को, प्रतिमाओं को, धारणाओं को -मन के बुलबुले ! थोड़े गहरे उतरो ! जहां लहरें नहीं, जहां शब्द नहीं-जहां मौन है। जहां पर मौन मुखर है ! जहां केवल मौन ही गूंजता है ! उसी में वहीन तेरा गूंजता है छंद ऋत विज्ञप्त होता है। उतरो वहां ! उसी में से तू बढ़ा कर हाथ सहसा खींच लेता है, गले मिलता है। वहीं है मिलन ! तुम जिसे खोजते हो, तुम्हारे भीतर छिपा है । तुम जिस प्रश्न की तलाश कर रहे हो, उसका उत्तर तुम्हारे भीतर छिपा है। जागो ! इसी क्षण भोगो उसे ! अष्टावक्र के सारे सूत्र एक ही खबर देते हैं : पाना नहीं है उसे, पाया ही हुआ है। जागो और भोगो ! हरि ॐ तत्सत् ! जागो और भोगो 163 1
SR No.032109
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages424
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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