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मेरे स्वीकारे आंसू में ढलका
वह अनजाना - अनपहचाना ही आया वह इन सबके और मेरे माध्यम से अपने में, अपने को लाया • अपने में समाया
अकेला वह तेजोमय है जहां दीठ बेबस झुक जाती है।
वहां आंख तो झुक जाती है।
वाणी तो क्या, सन्नाटे तक की गूंज वहां चुक जाती है।
उसके लिए तैयारी करो। उसके लिए हृदय को प्रेम से भरो। उसके लिए सहानुभूति से सुनना सीखो। और मैं तुमसे जो कह रहा हूं, उसे मंजूषा में संजोओ। तो फिर बेचैनी न होगी। फिर वह उतरे अपरिचित, अनजान — तुम उसे समझ पाओगे। तुम उसके गूढ़ स्वर को समझ पाओगे। तुम उसके सन्नाटे में डूबोगे नहीं, घबड़ाओगे नहीं - मुक्त हो जाओगे । अन्यथा, वह मौत जैसा लगेगा। परमात्मा अगर बिना समझे हुए आ जाए, तुम्हारे पास अगर समझने का कोई भी उपाय न हो, तो मौत जैसा लगेगा कि मरे ! अगर तुम्हारे पास समझने का थोड़ा उपाय हो, थोड़ी तैयारी हो, तुमने सदगुरुओं से कुछ सीखा हो, सत्संग किया हो – तो परमात्मा मोक्ष है, अन्यथा मृत्यु जैसा मालूम पड़ता है। और एक बार तुम घबड़ा गए तो तुम उस तरफ जाना बंद कर दोगे। एक बार तुम बहुत भयभीत हो गए, तो तुम्हारा रोआं-रोआं डरने लगेगा। तुम और सब जगह जाओगे, वहां न जाओगे जहां ऐसा भय है; जहां हाथ-पैर लड़खड़ा जाएं; जहां राह के किनारे बैठ जाना पड़े; जहां सब धूमिल हो जाए, सब खोता मालूम पड़े; कुछ अज्ञात, अनजाना शेष रहे और घबड़ाए और बेचैनी दे - फिर तुम वहां न जाओगे ।
रवींद्रनाथ का गीत है कि मैं परमात्मा को खोजता था अनेक जन्मों से । बहुत खोजा, मिला नहीं। कभी-कभी दूर, बहुत दूर चांद-तारों पर उसकी झलक दिखाई पड़ जाती थी । आशा बंधी रही, खोजता रहा। फिर एक दिन संयोग और सौभाग्य कि उसके द्वार पर पहुंच गया । तख्ती लगी थी- यही रहा घर भगवान का! चढ़ गया सीढ़ियां एक छलांग में, जन्मों-जन्मों की यात्रा पूरी हुई थी । अहोभाग्य ! हाथ में सांकल लेकर बजाने को ही था कि तब एक भय पकड़ा कि अगर वह मिल गया, तो फिर ? फिर मैं क्या करूंगा ? अब तक परमात्मा को खोजना ही तो मेरा कुल कृत्य था। अब तक इसी सहारे जीया । यही थी मेरी जीवन-यात्रा । तो परमात्मा अगर मिल गया तो वह तो मृत्यु हो जाएगी। फिर मेरे जीवन का क्या? फिर मेरी यात्रा कहां ? फिर कहां जाना है, किसको पाना है, क्या खोजना है ? फिर तो कुछ भी न बचेगा। तो बहुत घबड़ा गया । छोड़ दी सांकल आहिस्ता से, कि कहीं आवाज न हो जाए, कहीं वह द्वार खोल ही न दे ! जूते हाथ में ले लिए। भागा... तो तब से भाग रहा हूं।
अब भी खोजता हूं - रवींद्रनाथ ने लिखा है उस गीत में – अब भी खोजता हूं परमात्मा को; हालांकि मुझे पता है उसका घर कहां है। उस जगह को भर छोड़ कर सब जगह खोजता हूं; क्योंकि खोजना ही जीवन है। उस जगह भर जाने से बचता हूं। उस घर की तरफ भर नहीं जाता। वहां से
जागो और भोगो
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